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१५२ / श्रमण महावीर
भगवान् ने इस ग्रंथि-मोक्ष के तीन पर्व निश्चित किए - १. पाक्षिक आत्मालोचन। २. चातुर्मासिक आत्मालोचन। ३. सांवत्सरिक आत्मालोचन।
किसी व्यक्ति के प्रति मन में वैर का भाव निर्मित हो तो उसे तत्काल धो डाले, जिससे वह ग्रंथि का रूप न ले। भगवान् ने साधुओं को निर्देश दिया – 'परस्पर कोई कटुता उत्पन्न हो तो भोजन करने से पहले-पहले उसे समाप्त कर दो।' एक बार एक मुनि भगवान् के पास आकर बोला -- 'भंते! आज एक मुनि से मेरा कलह हो गया। मुझे उसका अनुताप है। अब मैं क्या करूं?'
भगवान् – 'परस्पर क्षमा याचना कर लो।' मुनि - 'भंते ! मेरा अनुमान है कि वह मुझे क्षमा नहीं करेगा।'
भगवान् – 'वह तुम्हें क्षमा करे या न करे, आदर दे या न दे, तुम्हारे जाने पर उठे या न उठे, वंदना करे या न करे, साथ में खाए या न खाए, साथ में रहे या न रहे, कलह को शान्त करे या न करे, फिर भी तुम उसे क्षमा करो।'
मुनि - 'भंते ! मुझे अकेले को ही ऐसा क्यों करना चाहिए?'
भगवान् - 'श्रमण होने का अर्थ है शान्ति। श्रमण होने का अर्थ है मैत्री। तुम श्रमण होने का अनुभव कर रहे हो, इसलिए मैं कहता हूं कि तुम अपनी मैत्री को जगाओ। जो मैत्री को जागृत करता है, वह श्रमण होता है। जो मैत्री को जागृत नहीं करता, वह श्रमण नहीं होता।'
इस जगत् में सब लोग श्रमण नहीं होते। श्रमण भी सब समान वृत्ति के नहीं होते। इस वस्तु-स्थिति को ध्यान में रखकर भगवान् ने कहा - यदि तत्काल मैत्री की अनुभूति न कर सको तो पक्ष के अंतिम दिन में अवश्य उसका अनुभव करो। पाक्षिक दिन भी उसकी अनुभूति न हो सके तो चातुर्मासिक दिन तक अवश्य उसे विकसित करो। यदि उस दिन भी उसका अनुभव न हो तो सांवत्सरिक दिन तक अवश्य ही उसका विकास करो। यदि उस दिन भी द्वेष की ग्रंथि नहीं खुलती है, सबके प्रति मैत्री-भावना जागृत नहीं होती है तो समझो कि तुम सम्यग् दृष्टि नहीं हो, धार्मिक नहीं हो।'
धर्म की पहली सीढ़ी है – 'सम्यग्दृष्टि का निर्माण और सम्यग्दृष्टि की पहली पहचान है - शान्ति और मैत्री के मानस का निर्माण। जिसके मन में प्राणीमात्र के प्रति मैत्री की अनुभूति नहीं है, वह महावीर की दृष्टि में धार्मिक नहीं है। चण्डप्रद्योत ने महावीर के इस सूत्र का उपयोग कर अपने को बंदीगृह से मुक्त करवाया था।
चण्डप्रद्योत सिन्धु-सौवीर के अधिपति उद्रायण की रूपसी दासी का अपहरण कर उसे उज्जयिनी ले आया। पता चलने पर उद्रायण ने उज्जयिनी पर आक्रमण कर दिया। चण्डप्रद्योत पराजित हो गया । उद्रायण ने उसे बंदी बना सिन्धु-सौवीर की ओर प्रस्थान
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