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________________ १०० / श्रमण महावीर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दिशा में होता है। जनतन्त्र के नागरिक अहिंसानिष्ठ नहीं होते, उसका अस्तित्व कभी विश्वसनीय नहीं होता । अहिंसा का अर्थ है - अपने भीतर छिपी हुई पूर्णता में विश्वास और अपने ही जैसे दूसरे व्यक्तियों के भीतर छिपी हुई पूर्णता में विश्वास । हिंसा निरन्तर अपूर्णता की खोज में चलती है, जबकि अहिंसा की खोज पूर्णता की दिशा में होती है। राग और द्वेष की चिता में जलने वाला कोई भी आदमी पूर्ण नहीं होता । पर उस चिता को उपशांत कर देने वाला मुमुक्षु पूर्णता की दिशा में प्रस्थान कर देता है । महावीर ने ऐसे मुमुक्षुओं के लिए ही संघ का संघठन किया। भगवान् ने आत्म-नियंत्रण, अनुशासन और व्यवस्था में सन्तुलन स्थापित किया । मुक्ति की साधना में आत्म-नियंत्रण अनिवार्य है । व्यक्तिगत रुचि, संस्कार और योग्यता की तरतमता में अनुशासन भी आवश्यक है। आत्म-साधना के क्षेत्र में आत्मनियन्त्रणविहीन अनुशासन प्रवंचना है। अनुशासन के अभाव में आत्म-नियन्त्रण कहींकहीं असहाय जैसा हो जाता है । व्यवस्था इन दोनों से फलित होती है । भगवान् ने व्यवस्था की दृष्टि से अपने गणों के नेतृत्व को सात इकाइयों में बांट दिया, जैसे ३. ४. ७. . आचार्य १. २. उपाध्याय ५. गणी ६. गणधर ये शिक्षा, साधना, सेवा, धर्म-प्रचार, उपकरण, विहार आदि आवश्यक कार्यों की व्यवस्था करते थे । गण के नेतृत्व का विकास एक ही दिन में नहीं हुआ। जैसे-जैसे गणों का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे व्यवस्था की सुसंपन्नता के लिए नेतृत्व की दिशाएं विकसति होती गई । स्थविर प्रवर्तक गणावच्छेदक । यह आश्चर्य की बात है कि संघीय नेतृत्व का इतना विकास अन्य किसी धर्मपरम्परा में नहीं मिलता। इस व्यवस्था का आधार था भगवान् महावीर का अहिंसा, स्वतन्त्रता और सापेक्षता का दृष्टिकोण । इसीलिए भगवान् ने आत्मानुशासन से मुक्त अनुशासन को कभी मूल्य नहीं दिया। भगवान् के धर्म-संघ में दस पकार की सामाचारी का विकास हुआ। उसमें एक सामाचारी है 'इच्छाकार'। कोई मुनि किसी दूसरे मुनि को सेवा देने से पूर्व कहता- 'मैं अपनी इच्छा से आपकी सेवा कर रहा हूँ।' दूसरों से सेवा लेने के लिए कहा जाता - 'यदि आपकी इच्छा हो तो आप मेरा यह कार्य करें ।' सेवा लेने-देने तथा अन्य प्रवृत्तियों में बलप्रयोग वर्जित था। आपवादिक परिस्थितियों के अतिरिक्त आचार्य भी बल का प्रयोग नहीं करते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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