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________________ तीर्थ और तीर्थंकर / ९३ मुक्त कराने को चले। जनता में बड़ा कुतूहल उत्पन्न हो गया। लोग परस्पर पूछने लगे, 'अब क्या होगा? इन्द्रभूति श्रमण नेता के जाल से मुक्त होंगे या अग्निभूति उसमें फंस जाएंगे?' कुछ लोगों ने कहा- 'दोनों भाई मिलकर महावीर का सामना कर सकेगें और उन्हें अपने मार्ग पर ले जाएंगे।' कुछ लोगों ने इसका प्रतिकार किया। वे बोले, 'इन्द्रभूति क्या कम विद्वान् था? यह कोई दूसरा ही जादू है । श्रमणनेता के पास जाते ही विद्वत्ता की आंच धीमी हो जाती है। उनके सामने जाते ही मनुष्य विचार-शून्य से हो जाते हैं। हमें स्पष्ट दीख रहा है कि अग्निभूति की भी वही दशा होगी जो इन्द्रभूति की हुई।' अग्निभूति अब चर्चा के केन्द्र बन चुके थे। वे अनेक प्रकार की चर्चा सुनते हुए महासेन बन के बाहरी कक्ष में जा पहुंचे। वहां पहुंचते ही उनकी वही गति हुई जो इन्द्रभूति की हुई थी। वे समवसरण के भीतर गए। भगवान् ने वैसे ही संबोधित किया, 'गौतम अग्निभूति! तुम आ गए?' अग्निभूति को अपने नाम-गोत्र के संबोधन पर आश्चर्य हुआ। उनका आश्चर्यचकित मन विकल्पों की सृष्टि कर रहा था। इधर भगवान् ने उनके आश्चर्य पर गम्भीर प्रहार करते हुए कहा, 'अग्निभूति! तुम्हें कर्म के बारे में सन्देह है। क्यों, ठीक है न?' ___अग्निभूति इन्द्रभूति के सामने देखने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे अपने भाई से कुछ निर्देश चाह रहे हों। पर भाई क्या कहे? उनका सिर अपने आप श्रद्धानत हो गया। वे बोले, 'भन्ते ! मेरा सर्वथा अप्रकाशित सन्देह प्रकाश में आ गया, तब उसका समाधान भी प्रकाश में आना चाहिए।" 'भगवान् ने अग्निभूति के विचार का समर्थन किया। 'अग्निभूति! क्या तुम नहीं जानते, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है?' 'भंते! जानता हूं, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।' 'कर्म और क्या है, क्रिया की प्रतिक्रिया ही तो है। क्या तुम नहीं जानते, हर कार्य के पीछे कारण होता है?' ___ 'भंते! जानता हूं।' 'मनुष्य की आन्तरिक शक्ति के विकास का तारतम्य दृष्ट है, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में रहा हुआ कारण अदृष्ट है। वही कर्म है।' 'भंते! उस तारतम्य का कारण क्या परिस्थिति नहीं है?' 'परिस्थिति निमित्त कारण हो सकती है पर वह मूल कारण नहीं है। परिस्थिति की अनुकूलता में अंकुर फूटता है, पर वह अंकुर का मूल कारण नहीं है। उसका मूल कारण बीज है। विकास का तारतम्य परिस्थिति से प्रभावित होता है, पर उसका मूल कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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