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[ प्रथम प्रकाश
प्रबन्धचिन्तामणि ३. शीलवतके विषयमें भूयराजका प्रबंध ।
१४) यह प्रबंध इस प्रकार है-कान्यकुब्ज देशमें, जो छत्तीस लाख गाँवोंका प्रगणा है, ' कल्याण कटक' नामक राजधानीमें भूय राज नामक राजा राज्य कर रहा था । किसी दिन प्रभात कालमें जब कि वह राजपाटिका करनेके लिये जा रहा था, उस समय खिड़की पर बैठी हुई किसी मृग-नयनीको देखता हुआ उसका अपहरण करनेके लिये अपने पानीयके अधिकारी पुरुषको आदेश किया । उसने उसे राज-भवनमें लाकर किसी संकेत स्थलपर रखकर राजाको निवेदन किया। वहां आकर राजाने उसका हाथ पकडकर खींचना चाहा तो इसपर वह राजासे बोली- स्वामिन् , आप तो सर्व देवताके अवतार हैं; अफसोस कि आपका इस नीच नारीमें क्यों अभिलाष है ?' उसके इस वाक्यसे राजाकी कामाग्नि कुछ शान्त हुई, और वह बोला कि-'तुम कौन हो?' उसके यह कहनेपर कि 'मैं आपकी दासी हूं'-राजाने कहा कि 'यह बात क्या ठीक कह रही हो तो उसने बताया कि 'आपका दास जो पानीयका अधिकारी है, मैं उसकी स्त्री, और आपकी दासानुदासी हूं ? ' उसकी बातसे राजा चकित हुआ और उसकी कामपीडा सर्वथा विलीन हो गयी । उसको अपनी पुत्री मानकर उसे विदा किया । उस ( स्त्री ) के शरीरमें हमारे हाथ लगे हैं, यह सोचकर उनके निग्रह (नष्ट करने ) की इच्छासे रातको यह भ्रान्ति जन्माकर कि खिड़कीके रास्ते कोई प्रवेश कर रहा है, अपने ही पहरेदारोंसे अपने दोनों ही हाथ कटवा डाले । सबेरे पहरेदारोंको मंत्रीलोग दण्ड देने लगे तो उन्हें रोककर मा ल व म ण्ड ल में महा काल देवके प्रासाद ( मन्दिर ) में जाकर उनकी आराधना करता रहा । देवताके आदेशसे जब दोनों भुजायें लग गई तो अपने अन्तःपुरके साथ सारा मा ल व देश उसी देवको समर्पण कर दिया और परमार [जातिके] राजपूतोंको उसकी रक्षाके अधिकारी नियुक्त करके स्वयं तापसी दीक्षा ग्रहण की।
-इस प्रकार शीलव्रत विषयक यह भूयराजका प्रबन्ध है ॥९॥
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