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प्रबन्धचिन्तामणि
[ चतुर्थ प्रकाश
समुद्रके किनारे उतारे
पाषाणके बने हुए सोलह खंबे पावक पर्वत परसे जलमार्ग द्वारा मँगाये । जब ये खंबे जाने लगे तो उनमेंसे एक स्तंभ इस प्रकार कीचडमें डूब गया कि खोजने पर भी न मिला। उसके बदले अन्य पाषाणका स्तंभ लगा कर वह प्रासाद पूरा किया गया। दूसरे साल समुद्रके पानीकी भरती के सबबसे वही खंबा कीचडसे बाहर निकल आया । मंत्रीकी आज्ञासे वह खंबा उसकी जगह पर लागाया जाने लगा तो किसी पुरुषने आ कर कहा कि - ' प्रासाद फट गया है ' । यह निवेदन करनेको आये हुए पुरुषको भी उस मंत्रीने सोनेकी जीभ इनाममें दी । चतुर आदमियोंने पूछा कि 'यह क्या बात है ? ' इस पर मंत्रीने कहा कि 'इसके बाद अब धर्मस्थान ऐसे दृढ़ बनवाऊँगा कि युगान्तमें भी उनका पतन नहीं होगा । इसी लिये इसे परितोषिक दिया गया है ।' फिर तीसरी बार मूल समेत उखाड कर यह प्रासाद बनाया गया जो [ अब भी ] वर्तमान है। श्री पालीताणा में भी उसने एक विशाल पौषधशाला बनवाई। फिर श्रीसंघके साथ वह मंत्री उज्जयन्त ( गिरनार ) पहुँचा । वहां उसकी उपत्यकामें ते जलपुर में स्वयं एक नया वप्र ( परकोटा ) बनवाया और उसीमें श्रीमद् आशराज विहार नामका मन्दिर तथा कुमार देवी नामका सरोवर भी बनवाया । उस निरुपम सरोवरको देखने बाद, जब नियुक्त पुरुषोंने कहा कि 'धवलगृह (महल) में पधारिये ' तो मंत्रीने कहा कि श्री गुरुमहाराजके योग्य पौषधशाला भी है या नहीं ? ' यह सुन कर कि वह बनाई जा रही है, तो वह विनयके अतिक्रमणमें भीरु गुरुके साथ, बाहर ही दिये गये आवास ( डेरे) में ठहरा । प्रातःकाल उज्जयन्त पर आरोहण करके श्री शैवेय (नेमिनाथ ) के चरणयुगलकी भली भाँति पूजा कर, स्वयं बनाये हुए श्री शत्रुंजया व तार तीर्थमें खूब प्रभावनायें कर, तथा कल्याणत्रय चैत्यमें श्रेष्ठ पूजोपचारसे अर्चना करके वह मंत्री जब नीचे उतरा तो इन दो दिनोंमें वह पौषधशाला तैयार हो चुकी थी। मंत्री गुरुको अपने साथ वहाँ ले आया । उन्होंने उन बनाने वालोंकी प्रशंसा की और पारितोषिक दान दे कर उनको अनुगृहीत किया । श्री पत्तन प्रभास क्षेत्र में चन्द्रप्रभ देवको प्रणाम करके प्रभावना के साथ यथोचित पूजा की । फिर अपने बनाये हुए अष्टापद प्रासाद पर सोनेके कलशका समारोपण करके, देवके पूजारियोंको दान दिया । वहाँके ११५ वर्षकी अवस्था वाले वृद्ध पूजारी के मुँहसे यह सुन कर कि - ' यहाँ पर प्रभुश्री हे माचार्य ने कुमारपाल नृपतिके सामने श्री सोमेश्वर देवको जगद्विदित रूपसे प्रत्यक्ष किया था ' उन ( प्रभु ) के चरित्रसे मनमें चकित हो कर वहाँसे लौटा । रास्ते में लिंगधारियोंके असदाचारको देख कर उन्हें अन्न देनेका निषेध किया । यह सुन कर वायटीय गच्छ के श्री जिन दत्त सूरि ने इस बातसे उसका अपयश समझ कर, अपने उपासकके पास से उन्हें अन्नदान दिलाया । यह सुन कर वह मंत्री उनके दर्शन और अनुनयके लिये आया तो उन्होंने उसे उपदेश दिया कि -
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२१४. क्षार जलके समान इन लिंगधारियोंकी परिपूर्णतासे ही तो यह शासन (धर्म) रूप समुद्र गंभीरताको धारण कर रहा है ।
२१५. संविग्न साधु भी इन लिंगधारियोंकी अनुवन्दना करते ह तो फिर धार्मिक और भवभीर पुरुषको उनकी पूजाकी चर्चा क्यों करनी चाहिए ।
२१६. प्रतिमाधारी ( श्रावक ) भी इनके सामने विषयका त्याग करते हैं इस लिये विषयवाले इन लिंगधारियोंकी पूजाका मना करना तो विरोधवाली बात है ।
२१७. जो लोग, लिंगोपजीवियोंकी अवधीरणा ( तिरस्कार ) करते हैं वे दुराशय दर्शन ( संप्रदाय ) के उच्छेदके पापसे लिप्त होते हैं ।
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