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________________ ११०] प्रबन्धचिन्तामणि [ चतुर्थ प्रकाश कुमारपालका अभक्ष्यभक्षणके निमित्त प्रायश्चित्त करना । १५५) इसके बाद, वह राजर्षि एक समय घेवरका भक्षण कर रहा था। उस समय कुछ विचार मनमें आ गया जिससे उसने वह सारा आहार छोड़-छाड़ कर, पवित्र हो कर, प्रभुसे जा कर पूछा कि- ' हमें घेवरका भक्षण करना चाहिये या नहीं ?' इस पर प्रभुने कहा-'वणिक् और ब्राह्मणको तो इसका भक्षण उचित है किन्तु जिस क्षत्रियने अभक्ष्यभक्षणका नियम किया है उसे नहीं करना चाहिए; क्यों कि उससे मांसाहारका स्मरण हो आता है।' राजाने कहा ' यह बिल्कुल ठीक है ' और फिर पूर्व भक्षित अभक्ष्यका प्रायश्चित्त पूछा । [ आचार्यने कहा- ] ३२ दाँतोंके निमित्त ३२ जैन मंदिर एक पीठस्थान पर बनवा देने चाहिए । राजाने वैसा ही किया। प्रभुके दिये हुए प्रतिष्ठालग्नमें प्रासादके मूल नायककी प्रतिष्ठा करानेके लिये, व ट प द्र क से कान्हू नामक व्यवहारी पत्त न में आया । उसने उस नगरके मुख्य प्रासादमें अपने बिंबको रख दिया और उपहारादि ले कर बाहरसे जब वापस आया तो राजाके अंगरक्षकोंने द्वार पर उसे रोक दिया । कुछ समय बाद जब द्वारपाल उठ गये और प्रतिष्ठोत्सव भी समाप्त हो गया, तो वह भीतर प्रवेश करके प्रभु ( हे म चन्द्र ) के चरण-मूलमें लग कर, उपालंभ पूर्वक, खूब रोने लगा। और किसी तरह उसके दुःखका दूर होना न जान कर वे रंगमंडपसे बाहर आये और नक्षत्र-चार देखने लगे, तो देखा कि उनका दिया हुआ लग्न तो आकाशमें अब उदित हुआ है। खोटी घडीके हिसाबसे ज्योतिषीने जो पहले लग्नमुहूर्त दिया है [ वह अशुद्ध है ] और उस लग्नमें प्रतिष्ठित मूर्तियोंकी आयु तीन ही बर्षकी है। अब जो इस समय लग्न वर्तमान है उसमें बिंबकी प्रतिष्ठा होगी वह चिरायु होगा । उसने उसी समय अपने बिंबकी प्रतिष्ठा कराई । प्रभुने जैसा कहा था वैसा ही बादमें हुआ। इस प्रकार अभक्ष्य-भक्षणके प्रायश्चित्तका यह प्रबंध समाप्त हुआ। कुमारपालका अन्यान्य विहारोंका बनवाना। १५६) [ राजाने यह स्मरण करके कि ] मेरे अपहृत धनसे एक चूहा [ उस समय ] मर गया था। इस लिये उसका प्रायश्चित्त पूछा तो प्रभुने उसके कल्याणार्थ उसीके नामका एक विहार बनवानेको कहा सो उसने वह [ मूषक विहार ] बनवाया। १५७) इसी प्रकार, किसी व्यवहारीकी उस वधूने, जिसके जाति, नाम, ग्राम, संबंध कुछ भी उसे नहीं मालूम हुए, रास्तेमें तीन दिन तक बुभुक्षित नृपतिको चावलके करंबेसे सन्तुष्ट कर रक्षा की थी, उसकी कृतज्ञताके निमित्त, उसके पुण्यकी अभिवृद्धिके लिये पत्त न में राजाने ' क रम्ब क विहार' बनवाया। १५८) इसी तरह, यू का वि हार भी इस प्रकार बना]-सपाद ल क्ष देशमें कोई अविवेकी धनी था । उसकी प्रियाने केश-संमार्जनके अवसर पर उसकी हथेली पर एक यूका (जू) पकड कर रखी । उसने उस पीडाकारिणीको तर्जन करके, मसल कर मार डाला । निकटवर्ती अमारिकारी पंचकुल ( जीवहिंसा प्रतिबन्धकी देखभाल करनेवाले अधिकारी ) ने उसे पकड़ कर अण हि ल्ल पुर में राजाके सामने ले आ कर निवेदित किया । इसके बाद प्रभुके आदेशसे उसके दण्डस्वरूप उसका सर्वस्त्र ले कर वहीं पर ( उसी गांवमें ! ) यू का विहार बनवाया। इस प्रकार यूका विहारका प्रबंध समाप्त हुआ। For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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