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प्रकरण १४६-१४९ ] कुमारपालादि प्रबन्ध
[ १०७ पाणिके वज्रप्रहारसे बचाओ-बचाओ' कहती हुई प्रभुके चरणों पर आ कर गिर गई। इस तरह अपनी अनिन्द्य विद्याके बल पर उस दोषके मूलभूत मिथ्यादृष्टिवाले व्यन्तरों ( भूत पिशाचों) का निग्रह करके श्री सुव्रतदेवके प्रासादमें आये । वहाँ पर - १९३. संसाररूप समुद्रके लिये सेतु, कल्याण-पथकी यात्राके लिये दीप-शिखा, विश्वके आधारके लिये
आलंबन यष्टि, परमतके व्यामोहके लिये केतुका उदय, अथवा हमारे मनरूपी हाथियोंके बन्धनके लिये दृढ़ आलान रूप लीलाको धारण करने वाले ऐसे श्री सुव्रतस्वामीके चरणोंकी नख-रश्मियाँ
[सबकी] रक्षा करें। इस प्रकारकी स्तुतियोंसे श्री मुनिसुव्रतकी उपासना करके, श्री आम्र भ ट को उल्लाघ स्नानसे सुस्थ करके, जैसे गये थे वैसे ही [ अपने स्थान पर ] लौट आये । श्री उ द य न चैत्य श कु नि का विहार के घटी गृहमें राजाने कौ ङ्कण नृपति के [ छीने हुए ] तीन कलश तीन जगह स्थापित किये।
इस प्रकार यह राज-पितामह श्री आम्रभटका प्रबंध समाप्त हुआ।
कुमारपालका विद्याध्ययन करना। १४८) इसके बाद, एक दूसरी बार, क पर्दी मंत्री का अनुमत कोई विद्वान् , राजा कु मार पाल के भोजन कर लेनेके बाद का मन्द की य नीति शास्त्र के इस श्लोकको पढ़ रहा था१९४. राजा मेघकी नाईं समस्त भूत-मात्रका आधार है । मेघके विकल होने पर भी जीवन धारण
किया जा सकता है पर राजाके विकल होने पर नहीं। तब, इस वाक्यको सुन कर राजाने कहा कि- ' अहो राजाको मेघकी 'ऊपम्या!' इस पर सभी सामाजिक लोक राजाका न्युंछन करने लगे । पर उस समय कपर्दी मंत्री ने अपना सिर नीचा कर लिया। यह देख कर राजाने एकान्तमें उससे [ कारण ] पूछा। उसने कहा - ' महाराजने जो ऊपम्या' शब्दका उच्चारण किया वह सब व्याकरणोंकी दृष्टि से अपशब्द (अशुद्ध) है; और इस पर भी इन खुशामती अनुवर्तियोंने न्युछन किया। उनके ऐसा करने पर मेरा तो दोनों प्रकार सिर नीचा करना ही समुचित है । शत्रु राजाओंमें इस प्रकारकी अपकीर्ति फैलती है कि ' अराजक जगत्का होना अच्छा है किन्तु मूर्ख राजाका होना अच्छा नहीं ।' जिस अर्थमें आपने यह शब्द कहा है उस अर्थमें उपमान, उपमेय, औपम्य, उपमा इत्यादि शब्द कहे जाते हैं। उसकी इस बातको [ आदरके साथ ] हृदयमें ग्रहण करके, अनन्तर, ५० वर्षकी उम्रमें, उस राजाने शब्द व्युत्पत्तिका ज्ञान करनेके लिये किसी उपाध्यायके निकट मात्रिकापाठसे आरंभ कर ( अ आ से ले कर ) शास्त्र पढ़ना आरंभ किया और एक वर्षके भीतर [ व्याकरणकी ] तीनों वृत्ति और तीनों काव्य पढ़ डाले । और फिर पण्डितोंसे 'विचार-चतुर्मुख' यह बिरुद प्राप्त किया ।
इस प्रकार विचारचतुर्मुख कुमारपालके अध्ययनका प्रबंध समाप्त हुआ।
बनारसके विश्वेश्वर कविका पत्तनमें आना। १४९) किसी अवसर पर, विश्वेश्वर नामक कवि वाराणसी से पत्तन में आ कर प्रभु श्री हे मसूरि की सभामें पहुँचा । वहाँ कुमार पाल राजाको विद्यमान देख कर उसने
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