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________________ ७८] प्रबन्धचिन्तामणि [ तृतीय प्रकाश देवको दान कर दिया । तीर्थका दर्शन कर वह उन्मुद्रित-लोचन हुआ और अमृताभिषिक्त होनेकी नॉई खडा रह गया। [ पर्वतकी रमणीयता देख कर ] सोचने लगा कि ' इस सल्लकी-वन और नदियोंसे परिपूर्ण पर्वत पर, यहीं, [ नये ] विंध्यवनकी रचना करूँगा' - इस प्रकारकी जो सफल प्रतिज्ञा [ पहले की थी और तदनुसार ] हाथियोंका झुंड पानेके लिये जो मेरा मन बेहाथ हो गया था, उस मनोरथसे मैंने इस तीर्थकी पवित्रताका ध्वंस करनेवाला मानस पाप किया है और इसलिये मुझ पापीको धिक्कार है । ' इस प्रकार श्री देवपादके सामने राजलोक द्वारा विदित अपने आपकी निंदा करता हुआ वह आनंदके साथ पर्वत पर से नीचे उतरा। वादी श्रीदेवमूरिका चरित्रवर्णन । १०९) अब यहाँ पर देव सूरि का चरित्र वर्णन करेंगे। - उस अवसर पर कुमुद चंद्र नामक दिगम्बर [ विद्वान् ] भिन्न भिन्न देशोंके चौरासी वादियोंको वादमें जीत कर, कर्नाट क देशसे गूर्जर देशको जीतनेकी इच्छासे कर्णा व ती नगरमें आया । वहाँ भट्टारक श्री देव सूरि चतुर्मास करके रहे हुए थे । एक वार श्री अरिष्टनेमिके मंदिर में जब वे धर्मशास्त्रका व्याख्यान कर रहे थे तो उस दिगंबरके साथी पंडितोंने उनकी वह अनुच्छिष्ट ( मौलिक, विशुद्ध ) वाणी सुनी। उन्होंने जा कर वह वृत्तान्त कुमुद चन्द्र से कहा तो उसने उनके उपाश्रयमें तृणके साथ जल प्रक्षेप कराया। पर, खण्डन, तर्क आदि प्रमाण शास्त्रोंमें प्रवीण ऐसे उस महर्षि पंडितने जब इस पर कुछ ध्यान न दे कर उसकी अवज्ञा की, तो उस दिगम्बरने श्री देवा चार्य की बहन तपोधना शील सुन्दरी को चेटकाधिष्ठित करके, नाच, जलानयन आदि अनेक विडंबनाओंसे उसे विडंबित किया। चेटक (टोना आदि ) के दूर होने पर वह जब स्वस्थ हुई तो उस उत्कट पराभवसे दुःखित हो कर वह अपने आचार्यकी खूब भर्त्सना करने लगी। उसे रोक कर आचार्य चिन्तामग्न हो रहे । ( यहाँ पर P प्रतिमें इस विषयके निम्नलिखित पद्य पाये जाते हैं-) [१०३ ] हा ! मैं किसके आगे पुकार करूँ ? मेरे प्रभु तो कर्णरहित हैं । इनसे तो वह सुगत (बुद्ध) देव ही अच्छा है जो अपने शासनका तिरस्कार होने पर [ उसका प्रतिकार करनेकी इच्छासे ] अवतार धारण करता है। [साघीके इस वाक्यको सुन कर आचार्य मनमें सोचने लगे-] [१०४ ] आः ! गुरुजनके प्रमाणोंकी व्याख्याका श्रम मेरे पास केवल उनके कंठके सुखा देने भरका पुष्ट फल देनेवाला मात्र हुआ-गुरुओंका- मुझे पढ़ानेके लिये किया गया परिश्रम व्यर्थ ही हुआ !-जो मैं उनके शासन (धर्म संप्रदाय ) के प्रति की गई इस प्रकारकी विडंबनाओंके डंबरको शान्त मनसे सुन रहता हूँ। [देवसूरिके द्वारा कही गई यह उक्ति सुन कर उस श्रेष्ठ आर्याने कहा-] [१०५] दुष्ट वादियोंके निर्दलनमें अंकुश जैसी श्री देवी, जो श्वेतांबरोंके अभ्युदयके लिये मंगलमयी ____ कोमल दुर्वा जैसी है, गुरुवर श्री दे व सू रि के ललाट पट्ट पर प्रथमावतारकी स्थिति लावे । श्री देव सूरि ने [ दिगम्बर विद्वान्से ] कहा-'वादविद्याविनोद (शास्त्रार्थ-विनोद) के लिये आप पत्त न चलें । वहाँ राज-सभामें आपके साथ वाद करेंगे।' उनके ऐसा आदेश करने पर वह दिगंबर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ पत्त न को पहुँचा। [ उसका आना सुन कर ] श्री सिद्ध रा ज ने, जिसके मातामहका वह विद्वान् गुरु था, सामने जा कर उसका योग्य सत्कार किया। वह वहीं डेरा डाल कर ठहरा । सिद्ध राज ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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