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श्रमणसंघ के विद्वान् मनीषी मुनि श्री नेमीचन्द जी म. आचार्य श्री की साहित्य यात्रा में प्रारंभ से ही विशिष्ट सहयोगी रहे हैं। उनके सहयोग से आचार्य श्री श्रमणसंघ के सभी उत्तरदायित्वों के बीच व्यस्त रहते हुए भी अपनी साहित्य सर्जना को आगे बढ़ाते रहे। आपश्री ने एकनिष्ट भावों से आचार्यश्री के साहित्य में जो अमूल्य योगदान किया है वह चिरस्मरणीय रहेगा। प्रस्तुत मूलसूत्रों में नंदीसूत्र की प्रस्तावना तो आचार्यश्री के अन्तिम समय में ही पूर्णता की और बढ़ी और उसकी संशोधित पांडुलिपि तो आचार्यश्री पुनः देख ही नहीं पाये, मैंने तथा श्रद्धेय मुनिश्री ने उस कार्य को सम्पन्न करने का निश्चय किया और आज हमारा यह प्रयास सार्थक हो रहा है। मुझे इसकी परम प्रसन्नता है। मुझे विश्वास है, मूलसूत्रों के सम्बन्ध में इस पुस्तक बहुत ही ज्ञानवर्धक और ऐतिहासिक तथ्य मिलेंगे जो सभी के लिए उपयोगी
में
होंगे।
मूलसूत्रों के विषय में तो स्वयं आचार्यश्री ने ही उत्तराध्ययनसूत्र की प्रस्तावना के प्रारंभ में काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। अतः यहाँ पिष्ट पेषण की आवश्यकता नहीं रही ।
मैं पुनः अपने परम श्रद्धेय आचार्य भगवंत की पावन स्मृति को जीवंत करतें हुए उनके द्वारा लिखित साहित्य का स्वाध्याय करते रहने की पाठकों को सद्प्रेरणा करती हूँ ताकि उनका लेखन हम सभी के ज्ञान विकास में सहायक बन सके।
इत्यलम् !
- साध्वी पुष्पवती
श्री तारक गुरु ग्रंथालय, उदयपुर 14-4-2000
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