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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ५३ *
"वेया अहीया न भवन्ति ताणं, भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं। जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज्ज एवं॥"
-उत्तराध्ययन १४/१२ तुलना कीजिए
"वेदा न सच्चा न च वित्तलाभो, न पुत्तलाभेन जरं विहन्ति। गन्धे रमे मुच्चनं आहु सन्तो, सकम्मुना होति फलूपपत्ति॥"
-जातक ५०९/६ “इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं। तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति ति कहं पमाए ?॥"
-उत्तराध्ययन १४/१५ तुलना कीजिए
"इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम्।
एवमीहासुखासक्तं, मृत्युरादाय गच्छति॥" -शान्तिपर्व १७५/२० विस्तारभय से हम उन सभी गाथाओं का अन्य ग्रन्थों के आलोक में तुलनात्मक अध्ययन नहीं दे रहे हैं। विशेष जिज्ञासु लेखक का ‘जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा' ग्रन्थ में 'तुलनात्मक अध्ययन' शीर्षक निबन्ध देखें। भिक्षु : एक विश्लेषण
पन्द्रहवें अध्ययन में भिक्षुओं के लक्षणों का निरूपण है। जिसकी आजीविका केवल भिक्षा हो, वह 'भिक्षु' कहलाता है। सच्चा सन्त भी भिक्षा से आहार प्राप्त करता है तो पाखण्डी साधु भी भिक्षा से ही आहार प्राप्त करता है। इसीलिए दोनों ही प्रकार के भिक्षुओं की संज्ञा 'भिक्षु' है। जैसे स्वर्ण अपने सद्गुणों के कारण कृत्रिम स्वर्ण से पृथक् होता है वैसे ही सद् भिक्षु अपने सद्गुणों के कारण असद् भिक्षु से पृथक् होता है। स्वर्ण को जब कसौटी पर कसते हैं तो वह खरा उतरता है। कृत्रिम स्वर्ण स्वर्ण के सदृश दिखाई तो देता है किन्तु कसौटी पर कसने से अन्य गुणों के अभाव में वह खरा नहीं उतरता है। इसीलिए वह शुद्ध सोना नहीं है। केवल नाम और रूप से सोना सोना नहीं होता; वैसे ही केवल नाम और वेश से कोई सच्चा भिक्षु नहीं होता। सद्गुणों से ही जैसे सोना सोना होता है वैसे ही सद्गुणों से भिक्षु भी ! संवेग, निर्वेद, विवेक,
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