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* ३६८ मूलसूत्र : एक परिशीलन
प्रस्तावना - लेखन, सम्पादन की कहानी
यद्यपि स्व. आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने नन्दीसूत्र की प्रस्तावना का लेखन काफी समय से प्रारम्भ कर दिया था । किन्तु इन्दौर चातुर्मास में तथा उसके पश्चात् भी उनका स्वास्थ्य बहुत ही शिथिल रहा। बाद में विहार में भी उनका स्वास्थ्य समीचीन नहीं रहा । फिर उन पर आचार्यपद का गुरुतर भार होने के कारण दिनभर अत्यन्त व्यस्तता रहती थी, इस कारण वे प्रस्तावना-लेखन तथा परिष्कृत सम्पादन पूर्ण नहीं कर सके । अतएव उन्होंने मुझ पर इस शास्त्र की प्रस्तावना के परिष्कार का भार डाला । यद्यपि मुझमें उनके जैसी अगाध विद्वत्ता और क्षमता कहाँ ? फिर भी उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करके प्रस्तावना के परिष्कृत सम्पादन का दायित्त्व सँभाला।
बीच-बीच में कार्य - व्यस्तता, अस्वस्थता आदि कारणों से सम्पादन - कार्य में व्यवधान आता रहा। आचार्य श्री का भी बार-बार परिष्कृत प्रस्तावना सम्पादित करके शीघ्र भेजने का तकाजा आता रहता था। अतएव चैत्र महीने की नवरात्रि के नौ दिन समौन एकाशन करके मैंने इसके सम्पादन को पार लगाने का दृढ़ निश्चय किया। फलतः २२ अप्रैल तक ७७ पेज का सम्पादित किया हुआ मैटर स्थानीय संघ के अध्यक्ष एवं मंत्री के साथ आचार्य श्री की सेवा में अवलोकनार्थ मुम्बई भेजा। किन्तु आचार्यश्री अस्वस्थ थे; इस कारण वे इस मैटर का अवलोकन न कर सके। यह किसने जाना था कि आचार्य श्री इस प्रस्तावना के सम्पादित मैटर को सदा के लिए नहीं देख सकेंगे और न ही इसकी प्रकाशित पुस्तक को देख सकेंगे ? हमारे दुर्भाग्य से ता. २६ अप्रैल, १९९९ को वह मनहूस दिन आया और आचार्य श्री सदा के लिए इस लोक से महाप्रयाण कर
गए।
प्रस्तावना का अवशिष्ट अंश भी सम्पादित हो चुका है और मुद्रणार्थ प्रसिद्ध मुद्रण- कला विशेषज्ञ, साहित्य महारथी श्री श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' को आगरा भेज दिया गया है। उनके हाथों से अद्यावधि अनेक ग्रन्थ और पुस्तकें सुन्दर ढंग से मुद्रित और प्रकाशित हुई हैं । प्रस्तुत शास्त्र की प्रस्तावना के सम्पादन में जिन-जिन महामनीषियों, आचार्यों, मुनिवरों आदि के ग्रन्थों, आगमों, पुस्तकों के वचनामृतों का उपयोग किया है या सहयोग लिया है, उनका मैं हार्दिक ऋणी हूँ तथा उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना आवश्यक समझता हूँ।
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