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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३३१ *
आचार्य सम्भूतविजय से आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। तदनन्तर गुरु-आज्ञा प्राप्त कर कोशा गणिका की चित्रशाला में चातुर्मास व्यतीत कर साधु-जीवन का उज्ज्वल उच्च आदर्श स्थापित किया कि सभी लोग कह उठेकाजल की कोठरी में रहकर भी वे बेदाग रहे। आचार्य सम्भूतविजय से भी उन्हें दुष्कर-महादुष्कर क्रिया के साधक का सम्मान प्राप्त हुआ। आचार्य भद्रबाहु से उन्होंने समग्र चतुर्दश पूर्व का ज्ञान अत्यन्त धैर्य के साथ ग्रहण किया। यद्यपि किंचित् ज्ञानपद के दण्डस्वरूप अर्थवाचना तो वे दो वस्तु कम दशपूर्व की ही ले पाये थे, अन्तिम ४ पूर्व की उन्हें मूल पाठ-वाचना ही प्राप्त हुई।
आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् वीर निर्वाण सं. १७० (विक्रम पूर्व ३००) में आर्य स्थूलभद्र आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए। अत्यन्त दक्षता के साथ आचार्यपद का निर्वहन करते हुए वैभारगिरि पर ९९ वर्ष की वय में १५ दिनों का अनशन कर वीर निर्वाण २१५ (विक्रम पूर्व २५५) में वे स्वर्गवासी हुए।
आर्य स्थूलभद्र श्रमण-शिरोमणि एवं महान् तेजस्वी आचार्य थे। मंगलाचरण में तीर्थंकर प्रभु महावीर और गणधर गौतम के पश्चात् आपका नामस्मरण आपके विशिष्ट व्यक्तित्त्व का सूचक है।१५७ विशेष ज्ञातव्य (१) स्थूलभद्र ने अपने पर अत्यन्त अनुरक्त कोशा गणिका को अध्यात्म का
मर्म समझाकर व्रतधारिणी श्राविका बनाया। उसने अपने शेष जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। मगध-सम्राट उदायी की मृत्यु के पश्चात् प्रथम नन्द के समय से नवम नन्द के समय तक निरन्तर महामात्य शकडाल के पूर्वपुरुष कल्पक ही मगध के महामात्य पद पर सुशोभित होते रहे थे। नवम नन्द के महामात्य का नाम शकटार या शकडाल था। आचार्य सम्भूतविजय के स्वर्गारोहण से पूर्व मध्य प्रदेश में भीषण दुष्काल पड़ा था। फलतः श्रुत (शास्त्रों) का परावर्तन (पारायण) न होने के कारण एकादशांगी के पाठ भी विस्मृत होने लगे थे।१५८ बारहवें दृष्टिवाद का ज्ञाता एक भी श्रमण नहीं बचा था। उस समय आगमों की प्रथम बृहद् वाचना पाटलिपुत्र में वीर निर्वाण सं. १६० में की गई। यह वाचना स्वर्गस्थ आचार्य सम्भूतविजय के शिष्य आर्य स्थूलभद्र के तत्त्वावधान में हुई थी।
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