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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३२९ *
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(४) भद्रबाहु ने नेपाल की पहाड़ियों में महाप्राण-ध्यान की साधना १२ वर्ष
तक की।१५३ उसी दौरान स्वयं की इच्छा न होने पर भी श्रीसंघ की प्रार्थना पर स्थूलभद्र को ८ वर्ष में ८ पूर्वो का अध्ययन कराया। ५४ स्थूलभद्र के साथ ४९९ विद्यार्थी-श्रमण और भी पूर्वशास्त्रों के अध्ययनार्थ गये थे, किन्तु एक तो दृष्टिवाद का अभ्यास अतिकठिन, दूसरे भद्रबाहु स्वामी से प्राप्त अल्प समय की वाचना, इन दोनों को देखकर उनका धैर्य डोल उठा। वे वाचना लिए बिना ही पुनः स्व-स्थान को लौट आए। 'तित्थोगालिय' के अनुसार १,५०० श्रमण नेपाल गए। उनमें ५०० विद्यार्थी-श्रमण और १,००० श्रमण उनकी परिचर्या करने वाले थे। स्थूलभद्र १४ पूर्व का ज्ञान ग्रहण करने में पूर्ण समर्थ थे। किन्तु श्रुतमद (ज्ञानमद) से आक्रान्त होने के कारण ४ पूर्वो का अर्थतः अध्ययन उन्हें नहीं कराया गया। उसके लिए आचार्य भद्रबाहू ने श्रीसंघ की प्रार्थना को भी मान्य नहीं किया। इससे यह सिद्ध होता है कि संघ की शक्ति आचार्य में केन्द्रित होती है। आचार्य ही अन्तिम निर्णायक होता है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के अतिरिक्त आचार्यों की लम्बी शृंखला पार करने के बाद एक भद्रबाहु और हुए हैं। उन्हें ही दिगम्बर परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य (वीर निर्वाण २१५) के गुरु एवं निमित्त ज्ञानी मानना निर्विवाद है। इन्होंने ही चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्नों का फलादेश बताया था
और ये ही (द्वितीय भद्रबाहु) द्वादशवर्षीय दुष्काल के समय १२,००० साधुओं के साथ दक्षिण की ओर विहार कर गये थे। द्वितीय भद्रबाहु सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के सहोदर थे और विक्रम की पाँचवीं
शताब्दी में हुए थे। गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र आचार्य : अष्टम पट्टधर
शृंगार और वैराग्य दोनों की पराकाष्ठा का अपूर्व और अद्भुत समन्वय करके इतिहास में नाम अमर करने वाले सुतीक्ष्ण प्रतिभा के धनी, दुष्काल के आघात से टूटती श्रुत-श्रृंखला के संरक्षक, अनुपम कामविजेता आचार्य स्थूलभद्र का श्वेताम्बर जैन परम्परा में अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान है।
आचार्य स्थूलभद्र का जन्म गौतम गोत्रीय ब्राह्मण-परिवार में वीर निर्वाण सं. ११६ (विक्रम पूर्व ३५४) में पाटलिपुत्र में हुआ था। इनके पिता का नाम
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