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________________ २४२ मूलसूत्र : एक परिशीलन से अनुयोगद्वार पर लिखने की भावना रखता हूँ । परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का मैं किन शब्दों में आभार व्यक्त करूँ। उनकी अपार कृपा मुझ पर रही है। प्रस्तुत प्रस्तावना लिखने में भी उनका पथ-प्रदर्शन मेरे लिए सम्बल रूप में रहा है। अन्त में मैं आशा करता हूँ कि प्रबुद्ध पाठकगण प्रस्तुत आगम का स्वाध्याय कर अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करेंगे और जीवन को पावन - पवित्र बनायेंगे । उद्घृत संदर्भ-स्थल सूची १. “ऋषिदर्शनात्।’ २. “साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बुभूवुः ।" ३. "सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमावावतो सत्थं ।" टीका- “शासु अनुशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम् ।” - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १३८४ ४. “सुत्तं गणधरकधिदं, तहेव पत्तेयबुद्धकधिदं च । सुदकेवलिणा कधिदं, अभिण्णदसपुव्वि कधिदं च ॥” ५. " अप्पग्गंथ महत्थं, बत्तीसा दोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठेहि गुणेहि उववेयं ॥ अप्पक्खरमसंदिद्धं च, सारवं विस्सओ मुहं । अत्थोभमणवज्जं च, सुत्तं सव्वण्णुभासियं ॥" ६. “मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः ॥" - निरुक्त २/११ -वही १/२० Jain Education International -मूलाचार ५/८० - आवश्यकनिर्युक्ति ८८०, ८८६ - योगबिन्दु प्रकरण २ / ९ ७. समवायांग १४/१३६ ८. “अहवा तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तं जहा - अंगपविट्ठ अंगबाहिरं च ।” For Private & Personal Use Only ९. (क) आवश्यक निर्युक्ति ३६३-३७७ (ख) विशेषावश्यकभाष्य २२८४-२२९५ (ग) दशवैकालिकनिर्युक्ति, ३ टीका १०. “ युज्यते संबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योगः ।" ११. “अणुसूतं महानर्थस्ततो महतोर्थस्याणुना सूत्रेण योगो अनुयोगः ।” १२. देखो - 'अणुओग' शब्द, पृष्ठ ३४० - नन्दीसूत्र ४३ www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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