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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १८३
मदन- काम का निरूपण है । २२९ इस प्रकार इस अध्ययन में पद की भी निक्षेप दृष्टि से व्याख्या है।
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तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक अर्थात् लघु आचारकथा का अधिकार है। क्षुल्लक, आचार और कथा इन तीनों का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन है। क्षुल्लक का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रतीत्य और भाव इन आठ भेदों की दृष्टि से चिन्तन किया गया है। आचार का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए नामन, धावन, वासन, शिक्षापान आदि को द्रव्याचार कहा है और दर्शन, ज्ञान, चारित, तप और वीर्य को भावाचार कहा है। कथा के अर्थ, काम, धर्म और मिश्र ये चार भेद किए गए हैं और उनके अवान्तर भेद भी किए गए हैं। श्रमण क्षेत्र, काल, पुरुष, सामर्थ्य प्रभृति को लक्ष्य में रखकर ही अनवद्य कथा करें । २३१
चतुर्थ अध्ययन में षड्जीवनिकाय का निरूपण है। इसमें एक, छह, जीव, निकाय और शास्त्र का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है। जीव के लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए बताया है-आदान, परिभोग, योग, उपयोग, कषाय, लेश्या, आँख, आपान, इन्द्रिय, बन्धु, उदय, निर्जरा, चित्त, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, धारण, बुद्धि, ईहा, मति, वितर्क से जीव को पहचान सकते हैं । २३२ शस्त्र के द्रव्य और भावरूप से दो प्रकार बताए हैं। द्रव्य-शास्त्र स्वकाय, परकाय और उभयकायरूप होता है तथा भाव- शास्त्र असंयमरूप होता है । २
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पंचम अध्ययन भिक्षा-विशुद्धि से सम्बन्धित है । पिण्डैषणा में पिण्ड तथा एषणा, ये दो पद हैं, इन पर निक्षेपपूर्वक चिन्तन किया गया है। गुड़, ओदन आदि द्रव्य - पिण्ड हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, ये भाव- पिण्ड हैं । द्रव्यैषणा सचित्त, अचित्त और मिश्र के रूप में तीन प्रकार की है। भावैषणा प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो प्रकार की है- ज्ञान, दर्शन, चारित आदि प्रशस्त भावैषणा है और क्रोध आदि अप्रशस्त भावैषणा है। प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्यैषणा का ही वर्णन किया गया है, क्योंकि भिक्षा-विशुद्धि से तप और संयम का पोषण होता है । २३४
छठे अध्ययन में बृहद् आचारकथा का प्रतिपादन है। महत् का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रतीत्य और भाव इन आठ भेदों से चिन्तन किया है । धान्य और रत्न के चौबीस - चौबीस प्रकार बताए गए हैं । २३५
सप्तम अध्ययन का नाम वाक्यशुद्धि है । वाक्य, वचन, गिरा, सरस्वती, भारती, गो, वाक् भाषा, प्रज्ञापनी, देशनी, वाग्योग, योग ये सभी एकार्थक शब्द
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