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________________ *१५८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन दर्प, काम, क्रोध के अधीन होकर अपने और दूसरों के शरीर में अवस्थित परमात्मा से विद्वेष करने वाले होते हैं।८३ काम, क्रोध और लोभ ये नरक के द्वार हैं, अतः इन तीनों द्वारों का त्याग कर देना चाहिए और जो इनको त्यागकर कल्याणमार्ग का अनुसरण करता है वह परम गति को प्राप्त करता है। इस प्रकार हम देखते हैं वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी क्रोध, मान आदि आवेगों को आध्यात्मिक विकास में बाधक माना है। यह आवेग सामाजिक सम्बन्धों में भी कटुता उत्पन्न करते हैं। सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इनका परिहार आवश्यक है। जितना-जितना कषायों का आवेग कम होगा उतनी ही साधना में स्थिरता और परिपक्वता आयेगी। इसलिए आठवें अध्ययन में कहा गया है-श्रमण को कषाय का निग्रह कर मन का सुप्रणिधान करना चाहिए। इस अध्ययन में इस बात पर बल दिया गया है कि श्रमण इन्द्रिय और मन का अप्रशस्त प्रयोग न करे, वह प्रशस्त प्रयोग करे। यह शिक्षा ही इस अध्ययन की अन्तरात्मा है। इसीलिए निर्यक्तिकार की दृष्टि से 'आचारप्रणिधि' नाम का भी यही हेतु है।८४ ___ 'प्रणिधि' शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अनेक बार किया है। वहाँ गूढ पुरुष-प्रणिधि, राग-प्रणिधि, दूत-प्रणिधि आदि प्रणिधि पद वाले कितने ही प्रकरण हैं। अर्थशास्त्र के व्याख्याकार ने प्रणिधि का अर्थ कार्य में लगाना तथा व्यापार किया है। प्रस्तुत आगम में जो प्रणिधि शब्द का प्रयोग हुआ है वह साधक को आचार में प्रवृत्त करना या आचार में संलग्न करना है। इस अध्ययन में कषायविजय, निद्राविजय, अट्टहासविजय के लिए सुन्दर संकेत किए गये हैं। आत्मगवेषी साधकों के लिए संयम और स्वाध्याय में सतत संलग्न रहने की प्रबल प्रेरणा दी गई है। जो संयम और स्वाध्याय में रत रहते हैं वे स्व-पर का रक्षण करने में उसी प्रकार समर्थ होते हैं जैसे आयुधों से सज्जित वीर सैनिक सेना से घिर जाने पर भी अपनी और दूसरों की रक्षा कर लेता है।१८५ विनय : एक विश्लेषण नौवें अध्ययन का नाम विनयसमाधि है। विनय तप है और तप धर्म है। अतः साधक को विनय धारण करना चाहिए। विनय का सम्बन्ध हृदय से है। जिसका हृदय कोमल होता है वह गुरुजनों का विनय करता है। अहंकार पत्थर की तरह कठोर होता है, वह टूट सकता है पर झुक नहीं सकता। जिसका हृदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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