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________________ २५० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । णाय कर्मकाण्डे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणाः, कर्मचेतनाप्रधानत्वाद्र्रनिवारिताऽशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तयः, सकलक्रियाकाण्डाडम्बरोचीर्णदर्शनज्ञानचारि. त्रैक्य परिणतिरूपां ज्ञानचेतनां मनागप्यसंभावयन्तः, प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं मंसारसागरे भ्रमन्तीति । उक्तञ्च- "चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरमत्थमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं, णिच्छयसुद्धं ण जागति" । येऽत्र केवलनिश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तबुद्धयोऽधमीलितविलोचनपुटाः किमपि स्वबुद्धयावलोक्य यथासुखमासते; ते खल्ववधीरितभिन्नमाध्यसाधनमावा अभिन्ननाध्य साधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमदभ. बिनः संतोपि रागादिविकल्परहितं परसमाधिरूपं शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाचरणयोग्यं षडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावकाचरणयोग्यं दान जाद्यनुष्ठानं च दूषयंते तेप्युभयभ्रष्टाः संतो निश्चयव्यवहारानुष्ठानयोग्यावस्थान्तरमजानन्तः पापमेव बध्नन्ति । यदि पुनः शुद्धात्मानुष्ठानरूपं तपमें निरन्तर उत्साह करता है । प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय, ध्यान इन छह प्रकारके अन्तरंग तपके लिये चित्तको वशमें करता है। वीर्याचारके निमित्त कर्मकांडमें अपनी सर्वशक्तिसे प्रवृत्त होता है । जिन्होंने कर्मचेतनाकी प्रधानतासे अशुभ कर्मकी प्रवृत्ति निवारी है वे ही शुभकर्मकी प्रवृत्तिको अङ्गीकार करते हैं। समस्त क्रियाकांडके आडम्बरसे गर्भित जो जीव हैं वे ज्ञानदर्शनचारित्ररूपगर्भित ज्ञानचेतनाको किसी कालमें भी नहीं पाते। बहुत पुण्याचरणके भारसे गर्भित चित्तवृत्तिको धारण करते हैं, ऐसे केवल व्यवहारावलंबी मिथ्यादृष्टि जीव स्वर्गलोकादिकके क्लेशोंकी प्राप्तिकी परंपराको अनुभव करते हुये परमकलाके अभावसे • बहुतकाल पर्यन्त संसारमें परिभ्रमण करेंगे । सो कहा भी है -- उक्तं च (गाथा ) "चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरमत्थमुकवावारा । चरणकरणस्स सारं, णिच्छ्यसुद्धं ण जाणंति" ॥ १ ॥ अर्थात्-जो जीव केवल निश्चयनयके ही अवलंबी हैं वे व्यवहाररूप स्वसमयमयी क्रियाकर्मकांडको आडंबर जानकर व्रतादिकम विरागी हो रहे हैं । अर्द्ध उन्मीलित लोचनसे ऊर्ध्वमुखी होकर स्वच्छंदवृत्तिको धारण करते हैं। कोई कोई अपनी बुद्धिसे ऐसा मानते हैं कि हम स्वरूपका अनुभव करते हैं। ऐसी समझसे सुखरूप प्रवृत्ति करते हैं । वे भिन्न साध्यसाधनभावरूप व्यवहारको तो मानते नहीं, निश्चयरूप अभिन्न साध्यसाधनको अपने में मानते हुये यों ही बहक रहे हैं। वे वस्तुको नहीं पाते; न निश्चयपदको पाते हैं, न १ चरण करण धानाः स्वसमयपरमार्थमुक्त व्यापाराः । चरणकरणस्य सारं, निश्चयशुद्ध न जानन्ति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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