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श्रीमद राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
तायां तस्यां प्रसिद्धनैः सङ्गयनैर्मल्य शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकीं सिद्धभक्तिमनुविभ्राणः प्रसिद्धः स्वसमवप्रवृत्तिर्भवति । तेन कारणेन स एव निःशेषितकर्मबन्धः सिद्धिमवाप्नोतीति ॥ १६९ ॥
अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्ष हेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्व
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सद्भावद्योतनमेतत्
सपयत् तित्यरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोहस्स |
दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपओत्तस्स ॥ १७० ॥ सपदार्थ तीर्थकर मभिगतबुद्धेः सूत्ररोचिनः ।
दूरतरं निर्वाणं संयमतपः सम्प्रयुक्तस्य ॥ १७० ॥
णिम्ममो रागाद्युपाधिरहितचैतन्य प्रकाशलक्षणात्मतत्त्वविपरीत मोहोदयोत्पन्नेन ममकाराहंकारादिरूप विकल्पजालेन रहितत्वाद निर्मोहश्व निर्ममः भविय भूत्वा पुणो पुनः सिद्धेषु सिद्धगुणसदृशानंतज्ञानात्मगुणेषु कुणदु करोतु । कां ? भतिं पारमार्थिकस्वसंवित्तिरूपां सिद्धभक्तिं । किं भवति ? तेण तेन सिद्धभक्तिपरिणामेन शुद्धात्मोपलब्धिरूपं णिव्वाणं निर्वाण पप्पोदि प्राप्नोतीति भावार्थः ॥ १६९ ॥ एवं सूक्ष्मपर समयव्याख्यान मुख्यत्वेन नवमस्थले गाथापंचकं गतं । अथाईदादिभक्तिरूपपरसमय प्रवृत्तपुरुषस्य साक्षान्मोक्ष हेतुत्वाभावेपि परंपरया मोक्षहेतुत्वं द्योतयन् सन् पूर्वोक्तमेव सूक्ष्म पर समयव्याख्यानं प्रकारान्तरेण कथयति; - दूरयरं णिव्वाणं [ च ] और [ निर्ममः परद्रव्यमें ममता भावसे रहित [ भूत्वा ] होकर, [ तेन ] उस कारण से [ निर्वाणं ] मोक्षको ( प्राप्नोति ) पाता है । भावार्थ - संसार में इस जीव के जब रागादिक भावोंकी प्रवृत्ति होती है तब अवश्य ही संकल्प विकल्पोंसे चित्तकी भ्रामकता हो जाती है। जहां चित्तकी भ्रामकता होती है वहां अवश्यमेव ज्ञानावरणादिक कर्मोंका बन्ध होता है । अतः मोक्षाभिलाषी पुरुषको चाहिये कि कर्मबन्धका जो मूलकारण संकल्प - विकल्परूप चितकी भ्रामकता है उसके मूलकारण रागादिक भावोंकी प्रवृत्तिको सर्वथा दूर करे | जब इस आत्मा के सर्वथा रागादिककी प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है तब यह ही आत्मा सांसारिक परिग्रहसे रहित हो निर्ममत्वभावको धारण करता है । तत्पश्चात् आत्मीक शुद्धस्वरूप स्वाभाविक निजस्वरूपमें लीन ऐसी परमात्मसिद्धपदमें भक्ति करता है तब उस जीवके स्वसमयकी सिद्धि कही जाती है । इस ही कारण जो सर्वथा प्रकार कर्मबन्ध से रहित होता है वही मोक्षपदको प्राप्त होता है। जबतक रागभावका अंशमात्र भी होगा तबतक वीतरागभाव प्रगट नहीं होता । इसलिये सर्वथा प्रकारसे रागमात्र त्याज्य है ।। १६९ ।। आगे अरहन्तादिक परमेष्ठि-पदों में जो भक्तिरूप परसमय में प्रवृत्ति है उससे साक्षात् मोक्षका अभाव है तापि परंपरा मोक्षका कारण है, ऐसा कथन करते
हैं; - [ सपदार्थं ] नवपदार्थ.
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