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________________ २३० श्रीमद्राजचन्द्रजैनश (खमालायाम् । रति, स खलु स्वकं चरितं चरति । एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्यसाधनभावं निश्चयनयमाश्रित्य मोक्षमार्गप्ररूपणम् ॥ १५९ ॥ पूर्वमुद्दिष्टं तत्स्त्रपरप्रत्ययपर्य्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् । न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्सुवर्णसुवर्णपाषाणवत् । अत एवोभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति ॥ नियमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् ; - धम्मादीसहहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्ठा तवं हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ॥ १६०॥ ति तया रहित आत्मस्वभावो यस्य स भवति परद्रव्यात्मभावरहितात्मा । पुनरपि किं करोति यः ? दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो दर्शनज्ञानविकल्पम विकल्पमभिन्नं चरत्यात्मनः सकाशादिति । तथाहि - पूर्व सविकल्पावस्थायां ज्ञाताहं द्रष्टाहमिति यद्विकल्पद्वयं निर्विकल्पसमाधिकालेऽनंतज्ञानानंदा दिगुणस्वभावादात्मनः सकाशादभिन्नं चरतीति सूत्रार्थः ॥ १५९ ॥ एवं निर्विकल्पस्वसंवेदनस्वरूपस्य पुनरपि स्वसमयस्यैव विशेषव्याख्यानरूपेण गाथाद्वयं गतं । अथ 1 जानकर आचरण करता है। ऐसा जो कोई जीव है उसीको स्वसमयका अनुभवी कहा जाता है । वीतराग सर्वज्ञने निश्चय-व्यवहार के दो भेदसे मोक्षमार्ग दिखाया है । उन दोनोंमें निश्वय नयके अवलंबनसे शुद्ध गुणगुणीका आश्रय लेकर अभेदभावरूप साध्यसा - धनकी जो प्रवृत्ति है वही निश्चय मोक्षमार्ग प्ररूपणा कही जाती है । और व्यवहार - नयाश्रित जो मोक्षमार्गप्ररूपणा है सो पहिले ही दो गाथाओंमें दिखाई गई है । वे दो गाथायें " सम्मत्ते" त्यादि हैं । इन गाथाओंमें जो व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप कहा गया है सो स्वद्रव्य परद्रव्यका कारण पाकर जो अशुद्धपर्याय उपजी है उसकी अधीनतासे भिन्न साध्यसाधनरूप है, सो यह व्यवहारमोक्षमार्ग सर्वथा निषेधरूप नहीं है, कथंचित् महापुरुषोंने प्रहण किया है । निश्चय और व्यवहार में परस्पर साध्य - साधनभाव है । निश्चय साध्य है, व्यवहार साधन है । जैसे सोना साध्य है और जिस पाषाण मेंसे सोना निकलता है वह पाषाण साधन है । यों सुवर्णपाषाणवत् व्यवहार है । जीव पुद्गलाश्रित है, केवल सुवर्णवत् निश्चय है, एक जीवद्रव्य हीका आश्रय है । अनेकांतवादी श्रद्धानी जीव इन दोनों निश्चयव्यवहाररूप मोक्षमार्गका ग्रहण करते हैं। क्योंकि इन दोनों नयोंके ही आधीन सर्वज्ञ वीतरागके धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति जानी गई है ।। १५९ ॥ आगे निश्चय मोक्षमार्गका साधनरूप व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप दिखाते हैं; - [ धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं ] धर्म अधर्म आकाश कालादिक समस्त १ पुनः तदग्रे प्रतिपाद्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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