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________________ पश्चास्तिकायः। १३५ मनुप्रविश्य समंततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरंगकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ता: शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमंत इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कंधप्रभवत्वमिति ॥ ७९ ॥ व्यरूपस्तद्गुणो वा यद्याकाशगुणो भवति तर्हि श्रवणेन्द्रियविषयो न भवति । कस्मात् । आकाशगुणस्यामूर्तत्वादिति । अथवा "उप्पादिमो” प्रायोगिकः पुरुषादिप्रयोगप्रभवः “णियदो" नियतो वैश्रसिको मेघादिप्रभवः। अथवा भाषात्मको भाषारहितश्चेति, भाषात्मको द्विविधोऽक्षरात्मकोऽनक्षरामकश्चेति । अक्षरात्मकः संस्कृतप्राकृतादिरूपेणार्यम्लेच्छभाषाहेतुः, अनक्षरात्मको द्विन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च । इदानीमभाषात्मकः कथ्यते । सोपि द्विविधो प्रायोगिको वैश्रसिकश्चेति । प्रायोगिकस्तु ततविततं घनसुषिरादिः । तथा चोक्तं । “ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकं । घनं तु कंसतालादि सुषिरं वंशादिकं विदुः ।" वैश्रसिकस्तु मेघादिप्रभवः पूर्वोक्त एव । इदं होता है, तब शब्दकी उत्पत्ति होती है। और स्वभावहीसे उत्पन्न अनंत परमाणुओंका पिंड ऐसी शब्द योग्य वर्गणायें परस्पर मिलकर इस लोकमें सर्वत्र ( फैल ) रही हैं। जहां जहां शब्दके उत्पन्न करनेको बाह्य सामग्रीका संयोग मिलता है वहां वहां वे शब्दयोग्य वर्गणायें स्वयमेव ही शब्दरूप होकर परिणमित हो जाती हैं । इस कारण शब्द निश्चयसे पुद्गलस्कंधोंसे ही उत्पन्न होता है । कोई मतावलंबी शब्दको आकाशका गुण मानते हैं किन्तु वह आकाशका गुण कदापि नहीं हो सकता । यदि आकाशका गुण माना जाय तो कर्णेन्द्रिय द्वारा ग्रहण करनेमें नहीं आता, क्योंकि आकाश अमूर्तीक है, अमूीक पदार्थका गुण भी अमूर्तीक होता है । इन्द्रियां मूर्तीक हैं, मूर्तीक पदार्थकी ही ज्ञाता हैं। इस लिये यदि शब्द आकाशका गुण होता तो कर्ण इन्द्रियसे ग्रहण करनेमें नहीं आता । वह शब्द दो प्रकार का है- एक प्रायोगिक, दूसरा वैश्रसिक । जो शब्द पुरुषादिके संबंधसे उत्पन्न होता है उसको प्रायोगिक कहते हैं । और जो मेघादि से उत्पन्न होता है वह वैश्रसिक कहलाता है । अथवा वही शब्द भाषा अभाषाके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे भाषात्मक शब्द अक्षर अनक्षरके भेदसे दो प्रकारका है। संस्कृत, प्राकृत, आर्य म्लेच्छादि भाषादिरूप जो शब्द हैं वे सब अक्षरात्मक हैं। और द्वीन्द्रियादिक जीवोंके शब्द, तथा केवलीकी दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक शब्द हैं । अभाषात्मक शब्दोंके भी दो भेद हैं-एक प्रायोगिक, दूसरा वैश्रसिक । प्रायोगिक तत, वितत, घन, सुषिरादिरूप होते हैं । तत शब्द उसे कहते हैं जो वीणादिसे उत्पन्न है । वितत शब्द ढोल दमामादिसे उत्पन्न होते हैं। और झांझ करतालादिसे उत्पन्न शब्द घन कहा जाता है । और बांसादिसे उत्पन्न शब्द सुषिर कहलाता है । इस प्रकार ये ४ भेद हैं । और जो मेघादिसे उत्पन्न होते १ शब्दयोग्यपुद्गलवर्गणा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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