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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । किमनादिनिधनाः, किं सादिसनिधनाः, किं साद्यनिधनाः, किं तदाकारेण परिणताः, किमपरिणताः भविष्यंतीत्याशङ्कथेदमुक्तम् । जीवा हि सहजचैतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनाऽनादिनिधनाः।त एवौदायिकक्षायोपशमिकौपशमिकभावः सादिसनिधनाः। त एव क्षायिकभावेन साद्यनिधनाः । न च सादित्वात् सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याशङ्कयम् । से खलूपाधिनिर्धत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव । जीवस्य सद्भावेन चानंती एव जीवाः प्रतिज्ञायते । न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्यलक्षणैकभावानां सादिसनिधनानि साद्यकर्तृत्वभोक्तत्वसंयुक्तत्वत्रयस्वरूपं तस्य संबन्धित्वेन पूर्वमष्टादशगाथासमुदायपातनिकारूपेण यत्सूचितं व्याख्यातं तस्येदानीं 'जीवा अणाइणिहणा' इत्यादि पाठक्रमेणांतरस्थलपंचकेन विवरणं करोति । तद्यथा । येषां जीवानामग्रे कर्मकर्तृत्वभोक्तत्वसंयुक्तत्वत्रयं कथ्यते तेषां पूर्व तावत्स्वरूपं संख्यां च प्रतिपादयति;-जीवा अणाइणिहणा जीवा हि शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेम शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शुद्धचैतन्यरूपेणानाद्यनिधनाः । पुनश्च कथंभूताः ? संता औदयिकक्षायोपशमिकौपशमिकभावत्रयापेक्षया सादिसनिधनाः । पुनरपि किंविशिष्टाः ? अणंता य' साद्यनंताः । कस्मात्सकाशाद ? जीवभावादो जीवभावतः क्षायिको भावस्तस्मात् । नहि क्षायिकभावस्य अपने भावोंको परिणमित होते हैं कि नहीं परिणमित होते ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य समाधान करते हैं;-[ जीवाः ] जो आत्मद्रव्य हैं वे [अनादिनिधनाः ] सहजशुद्ध चेतन पारिणामिकभावोंसे अनादि अनंत हैं । स्वाभाविक-भावकी अपेक्षा जीव तीनों कालोंमें टंकोत्कीर्ण अविनाशी हैं [ च ] और वे ही जीव [ सांताः ] सादि-सांत भी हैं और [ अनंता: ] सादि - अनंत भी हैं ।
औदायिक और क्षायोपशमिक भावोंसे सादि-सांत हैं, क्योंकि [ जीवभावा ] जीवके कर्मजनित भाव होनेसे औदयिक और क्षायोपशमिकभाव कर्मजनित हैं। कर्म बंधते भी हैं और निर्जरा को भी प्राप्त होते हैं, इसलिये कर्म आदि अंत लिये हुये हैं। उन कर्मजनित भावोंकी अपेक्षा जीव सादि-सांत जानना चाहिये । और वे ही जीव क्षायिक भावोंकी अपेक्षा सादि-अनंत हैं, क्योंकि कर्मके क्षयसे क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं, इस कारण सादि हैं । आगे अनंतकालपर्यन्त रहेंगे. इस कारण अनंत हैं। ऐसा क्षायिक भाव सादि-अनंत है । सो क्षायिकभाव जैसे शुद्ध सिद्धका भाव अविनाशी निश्चलरूप है, वैसा अनंतकाल तक रहेगा [ सद्भावतः ] सत्तास्वरूपसे जीवद्रव्य [ अनंताः । अनंत हैं । भव्य अभव्यके भेदसे जीवराशि अनंत है । अभव्य जीव अनंत हैं । उनसे अनंतगुणी अधिक भव्यराशि है । यदि कोई यहां प्रश्न करे कि आत्मा तो अनादि-अनंत सहज चैतन्यभावोंसे संयुक्त है, उसके सादि-सांत, सादि-अनंत भाव कैसे हो सकते हैं ? इसका
१ इति नाशङ्कयम्. २ क्षायिकभाव:. ३ विनाशरहिताः ।
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