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________________ पञ्चास्तिकायः। प्रभृतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रमास्कंधविस्तारेण तद् व्यामोति प्रभूतक्षीरम् । तथैव हि जीवोऽन्यत्र महति शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेश विस्तारेण तद् व्यामोति महच्छरीरं । यथैव च तत्पनरागरत्नमन्यत्र स्तोकक्षीरे निक्षिप्तं स्वप्रभास्कंधोपसंहारेण तद् व्यामोति स्तोकक्षीरं । तथैव च जीवोऽन्यत्राणुशरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशोपसंहारेण तद् व्यामोत्यणुशरीरमिति ॥३३॥ पद्मरागशब्देन पद्मरागरत्नप्रभा गृह्यते न च रलं यथा पद्मरागप्रभासमूहः क्षीरे क्षिप्तस्तत्क्षीरं व्याप्नोति तथा जीवोऽपि स्वदेहस्थो वर्तमानकाले तं देह व्याप्नोति । अथवा यथा विशिष्टाग्निसंयोगवशात्क्षीरे वर्द्धमाने सति पद्मरागप्रभासमूहो वर्द्धते हीयमाने च हीयत इति तथा विशिष्टाहारवशादेहे वर्धमाने सति विस्तरन्ति जीवप्रदेशा हीयमाने च संकोचं गच्छन्ति । अथवा स एव प्रभासमूहोऽन्यत्र बहुक्षीरे निक्षिप्तो बहुक्षीरं व्याप्नोति स्तोके स्तोकं व्याप्नोति तथा जीवोऽपि जगत्रयकालत्रयमध्यवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमयप्रकाशेन समर्थविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावचैतन्यचमत्कारमात्राच्छुद्धजीवास्तिकायाद्विलक्षणैमिथ्यात्वरागादिविकल्पैर्यदुपार्जितं शरीरनामकर्म तदुदयजनितविस्तारोपसंहाराधीनत्वेन सर्वोत्कृष्टावगाहपरिणतः सन् सहस्रयोजनप्रमाणं महामत्स्यशरीरं व्याप्नोति, जघन्यावगाहेन परिणतः पुनरुत्सेधधनांगुलासंख्येयभागप्रमितं लब्ध्यपूर्णसूक्ष्मनिगोतशरीरं व्याप्नोति, मध्यमावगाहेन मध्यमशरीराणि च व्याप्नोतीति भावार्थः ॥३॥ इसी प्रकार स्निग्ध पौष्टिक आहारादिके प्रभावसे शरीर ज्यों ज्यों बढ़ता है त्यों त्यों शरीरस्थ जीवके प्रदेश भी बढ़ते रहते हैं। और आहारादिककी न्यूनतासे जैसे जैसे शरीर क्षीण होता है वैसे वैसे जीवके प्रदेश भी संकुचित होते रहते हैं। और यदि उस रत्नको बहुतसे दूधमें डाला जाय तो उसकी प्रभा भी विस्तृत होकर समस्त दूधमें व्याप्त हो जायगी। वैसे ही बड़े शरीरमें जीव जाता है तो जीव अपने प्रदेशोंको विस्तार करके उस ही प्रमाण हो जाता है, और वही रत्न जब थोड़े दूधमें डाला जाता है तो उसकी प्रभा भी संकुचित होकर दूधके प्रमाणही प्रकाश करती है। इसी प्रकार बड़े शरीरसे निकलकर छोटे शरीरमें जानेसे जीवके भी प्रदेश संकुचित होकर उस छोटे शरीरके बराबर रहेंगे । इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि यह आत्मा कर्मजनित संकोचविस्ताररूप शक्तिके प्रभावसे जब जैसा शरीर धारण करता है तब वैसा ही होकर प्रवर्तित होता है । उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजनकी स्वयंभूरमण समुद्रमें महामच्छकी होती है । और जघन्य अवगाहना अलब्धपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीवोंकी है ॥ ३३ ॥ आगे १ प्रचुरदुग्धे. २ अन्यस्मिन् । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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