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________________ ८४ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । इदं सिद्धस्य निरुपाधिज्ञानदर्शनसुखसमर्थनम् ; जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सबलोगदरसी य । पप्पोदि सुहमणतं अव्वावाधं सगममुत्तं ॥२९॥ जातः स्वयं स चेतयिता सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च । प्राप्नोति सुखमनंतमव्याबाधं स्वकममूर्त्तम् ।। २९ ।। स्थायामपि योजनीया इति सूत्राभिप्रायः ।।२८।। अथ यदेव पूर्वोक्तं निरुपाधिज्ञानदर्शनसुखस्वरूप तस्यैव “जादो सय"मितिवचनेन पुनरपि समर्थनं करोति;-जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सब्बलोयदरिसी य आत्मा हि निश्चयनयेन केवलज्ञानदर्शनसुखस्वभावस्तावत् इत्थंभूतोपि यहाँ कोई पूछता है कि आत्माका लक्षण तो चेता है सो वह विभावरूप कैसे है ? उत्तर-संसारी जीवके अनादिकालसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका संबंध है । उन कर्मोंके संयोगसे आत्माकी चैतन्यशक्ति भी अपने निजस्वरूपसे गिरी हुई है । इसलिए विभावरूप होता है। जैसे कि कीचके संबंधसे जलका स्वच्छ स्वभाव था सो छोड़ दिया है। वैसेही कर्मके संबंधसे चेतना विभाव रूप हुई है, इस कारण समस्त पदार्थोके जाननेको असमर्थ है । एकदेश कुछही पदार्थोंको क्षयोपशमकी यथायोग्यतासे जानता है । और जब काललब्धि होती है तब सम्यग्दर्शनादि सामग्री आकर मिल जाती है, तब ज्ञानावरणादि कर्मोंका संबंध नष्ट होता है और शुद्ध चेतना प्रगट होती है। उस शुद्ध चेतनाके प्रगट होने पर यह जीव त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंको एक ही समयमें प्रत्यक्ष जान लेता है । निश्चल कूटस्थ अवस्थाको कथंचित्प्रकार प्राप्त होता है। और भांति नहीं होती कुछ और जानना नहीं रहा, इस कारण अपने स्वरूपसे निवृत्ति नहीं होती, ऐसी शुद्ध चेतनासे निश्चल हुआ जो यह आत्मा सो सर्वदर्शी सर्वज्ञभावको प्राप्त हो गया है, तब इसके द्रव्यकर्मके जो कारण है विभाव भावकर्म उनके कतत्वका उच्छेद होता है। और कर्म उपाधिके उदयसे जो सुखदुःख विभाव परिणाम उत्पन्न होते हैं उनका भोगना भी नष्ट होता है। और अनादि कालसे लेकर विभाव पर्यायोंके होनेसे जो आकुलतारूप खेद हुआ था उसके विनाश होनेसे स्वरूपमें स्थिर अनंत चैतन्य स्वरूप आत्माके स्वाधीन आत्मीक स्वरूपका अनुभूतरूप जो अनाकुल अनंत सुख प्रगट हुआ है उसका अनंतकालपर्यंत भोग बना रहेगा । यह मोक्षावस्थामें शुद्ध आत्मका स्वरूप जानना । आगे पहिले ही कह आये हैं कि जो आत्माके ज्ञान दर्शन सुखभाव उनको फिर भी आचार्य निरुपाधि शुद्धरूप कहते हैं;-[ सः ] वह शुद्धरूप [ चेतयिता ] चिदात्मा [ स्वयं ] आप अपने स्वाभाविक भावोंसे [ सर्वज्ञः ] सबका जाननेवाला [ च ] और [ सर्व लोकदर्शी ] सबका देखनेवाला ऐसा [ जातः ] हुआ है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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