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भर्तृहरिसुभाषितसंग्रह
सुजनो न याति वैरं परहितबुद्धिर्विनाशकालेऽपि । छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य ॥। ८०१ ॥ सुतारा विक्रीता खजनविरहः पुत्रमरणं
विनीतायास त्यागो रिपुबहुलदेशे च गमनम् । हरिचन्द्र राजा वहति शलिलं प्रेतसदने
ह्यवस्था तस्यैषा यह ह विषमाः कर्मगतयः ॥ ८०२ ॥ सुधामयोऽपि क्षयरोगशान्त्यै नासाग्रमुक्ताफलकच्छलेन । अनङ्गसंजीवनदृष्टिशक्तिर्मुखाम्बुजं ते पिवतीति चन्द्रः || ८०३ || सुवर्णपुष्पितां पृथ्वीं विचिन्वन्ति त्रयो जुनाः । शूरशू च कृतविद्यश् च यस् तु जानाति सेवितुम् ॥ ८०४ ॥ सुत्तस्यैकरूपस्य परप्रीत्यै घृतोन्नतेः ।
साधोः स्तनयुगस्येव पतनं कस्य तुष्टये ॥ ८०५ ॥ सुहास्य मुखपङ्कजे नयनचञ्चलालोचने
वदे मधुर भाषणे अतिविलासकामाञ्जने । गजेन्द्र गतिसंभ्रमे पदसरोरुहे कोमले
न होति न च यौवनीकषण भावरम्यस्थले || ८०६ ॥ सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः । आकारो रुचिरः स्थिरश् च विभवो विद्यावदातं मुखं
तुष्टे विष्टपहारिणीष्टदहरौ संप्राप्यते देहिनाम् ।। ८०७ ॥
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