________________
नीतिश्लोका। अम्भोजिनीवनविलासनिवासमेव
हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता । न.त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां
वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः ॥ ३८ ॥ खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके
वाञ्छन् देशमनातपं विधिवशादू बिल्वस्य मूलं गतः । तत्राप्यस्य महाफलेन पंतता भग्नं सशब्दं शिरः
प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस् तत्रैव यान्त्यापदः॥ ३९ ॥
38* Om. in NS2. Extra in NS1. Punjab 2101 on margin of f. 5a as N44. -") FaJi WXY. अंभोजनी- A3 -विलासविनोदमेव: B C D E F1-3 HIJ2.3 W (W orig.) x Yi-3 -निवासविलासमेव (D °ससौख्यं); Fs -विलासनमेव हत; Wi (by corr.) Ys. Th.. -विहारविलासमेव; G5 -विलासविहासमेव: Ms -विलासिनिवासमेव.
Wहतस्य (for हंसस्य). Eat (and Ec) हंत; Gi हंतु (for हन्ति). सतरां (for नितरां). Y: बलवान् ; Ms कवितो (for कुपितो). YA [s]पि धाता (for विधाता). -.) A0-2 नैवास्य; A8 नैतस्य; Es न न्वस्य; M3 नान्यस्य (for न त्वस्य). F °भेदविधि-3; J. 'भेदविध- (for 'भेदविधौ). B प्रगल्भा; C प्रसिद्ध; D प्रदिग्धां (for प्रसिद्धां). -4) A2 B1 D Eat (and Ec generally) is I J3 W2.3 Y2 T3 (orig.) ; Carina (for वैदग्ध्य-). C अपहातुम् ; Ga M1. 4. 5 अपहंतुम् (for 'हर्तुम्).
__BIS. 544 (201) Bhartr. ed. Bohl. 2. 15. Haeb. 43. Galan 18; 3p. 797 (Bh.); SRB. p. 221. 16 (Bh.); SKM. 15.2; SRK. p. 183. 2 (Bh.); ST. 12.2; VS. 22; SK. 3. 136 ; SU. 1149 (Bh.); SKG. f. 16a.
39 ") F2 खल्वाटे; TIA G1-4 M ख(M3 खा)ोटो. CJa G1 M2.4 संताडितो; Eo 'संतापतो; J1.8Y-s TG2-5 संतापिते (for 'पितो).-°)JY+-8 TG2-5 Mi2 गच्छन: Gi भ्राम्यन् (for वाम्छन्). C JY-3 T G M2 द्रुतगतिः; Y: दुतमसौ (for विधिवशाद). I छायार्थी समपेत्य सत्वरमसौ. D F1.3 JS ताल(W1-3 °ड)स्य (for बिल्वस्य). E3 T2 मले. T: स्थितः (for गतः). -') W तत्राप्याशु (for 'प्यस्य). J1 पततस्. A3 I तत्रोच्चमहता फलेन पतता; T3 तत्रस्थेपि महत्फलं निपतितं3 G1 तव्रस्थस्य च तत्फलेन पतता; Ms तत्रस्थस्य तु तत्फलैर्निपतितैर. Ta.३ भिन्नं (for भग्नं). CM1. 3.5 समस्तं: X सशब्दः (for सशब्ट). Ji तालस्य भग्नं शिरः. -d) F1-3 दैवरहितस; Ji.3 X Y1. 4-8 T G M1. 2. 4. 5 दैवहतकस्: Ja दैवकृतकस् (for भाग्यरहितस्). M3 यत्रायांति हि मंदभाग्यनिवहस्. Ao.1 तत्रैव यात्यापदः (com. मापदो याति probably ace. plural); A3C Eat F1.2.5 Hi(c.v. as in text).2 I W तत्रापदां भाजन; X Gat तत्रैव यंत्यापदः.
BIS. 2048 (802) Bhartr. ed. Bohl. 2. 86. Haeb. 44. lith. ed. I. and III. 89. Galan 91. Subhash. 3083; Sp. 437 (Bh.); SRB. p. 94. 114 (Dibiradevāditya); SBH. 3141 (Diviradevāditya); SRH. 36.7 (Paic.); SRK. p. 71, 13 (Bh.); Vs. 959 (Devaditya); SHV. 1.65a (Bh.) and 80b; SS. 46.8%3 SG. f. 34a% SSD.4.1.4b; SMV. 8.5.
३ भ. सु.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org