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४५] चतुर्थ अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा, एसोवमा सासय-वाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयंमि, कालोवणीए सरीरस्स भए ॥ ९ ॥
जो साधक साधना के प्रारम्भिक वर्षों में अप्रमत्त- जागृत नहीं रहता, वह बाद में भी अप्रमत्त नहीं हो सकता - यह धारणा ज्ञानीजनों की है। शाश्वतवादियों की धारणा इसके विपरीत है कि आयु के अन्तिम समय में अप्रमत्त हो जायेंगे। आयु के शिथिल होने पर तथा मृत्यु के प्रभाव से शरीर छूटने के समय वह ( शाश्वतवादी) खेदित होता है ॥९॥
The practiser who does not remain alert-non-negligent in the elementary years of practice, he cannot be non-negligent in the later years-this is the firm determination of wise; while the perpetual's thinking is contrary to it, he asserts that the negligence would be attained in the ending period of life; but he ( eternalist) laments, when grip of life loosens, death is near and the body is about to fall. (9)
खिप्पं न सक्केइ विवेगमे ं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे ।
समिच्च लोयं समया महेसी, अप्पाण- रक्खी चरमप्पमत्तो ॥ १० ॥
कोई व्यक्ति तत्काल ही विवेक (त्याग) करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए अभी से काम-भोगों को त्यागकर, मोक्षमार्ग में उद्यत होकर, प्राणिजगत का समभाव से अवलोकन करे। आत्मा की रक्षा करने वाला महर्षि अप्रमत्त होकर विचरण करे ॥१०॥
None can quickly be capable to attain discernment, therefore he should abstain his soul from sensual pleasures, understand the world, be impartial, and endeavour in the salvationpath. Guarding his own self the monk should never be careless. (10)
मुहुं मुहुं मोह-गुणे जयन्तं, अणेग-रूवा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ती असमंजसं च, न तेसु भिक्खू मणसा पउस्से ॥११॥ बार-बार मोहगुणों, शब्द आदि विषयों पर विजय प्राप्त करते हुए तथा संयम मार्ग में विचरण करते हुए श्रमण को अनेक कटु कठोर स्पर्श स्पृष्ट करते हैं, किन्तु वह उन पर मन से भी द्वेष न करे ॥११॥
Again and again overcoming the sensual desires and controlling himself, various types of harsh touches afflict the sage but he should not hate them even in the mind. (11)
मन्दा य फासा बहु-लोहणिज्जा, तह-प्पगारेसु मणं न कुज्जा । रक्खेज्ज कोहं, विणएज्ज माणं, मायं न सेवे, पयहेज्ज लोहं ॥१२॥
हिताहित विवेक को मंद करने वाले अनुकूल स्पर्श बहुत लुभावने होते हैं । किन्तु साधक उनमें अपने मन को न लगाए । क्रोध से अपने को बचाये, अभिमान को दूर करे, माया छल-कपट का सेवन न करे और लोभ को त्याग दे ॥ १२ ॥
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Such touches which make the discretion power of good and evil feeble are very attractive; but the adept (practitioner) should not take them to his mind. He should save himself from anger, make away the pride, be not hippocrite and abandon the greed. (12)
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