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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
The empirical man (soul) acts generally for his own and others (wife, son, brother etc). But at the time of bearing the fruits ( torments) of those deeds, no relative co-shares. (4)
चतुर्थ अध्ययन [ ४४
वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमंमि लोए अदुवा परत्था । दीव - पणट्ठे व अणन्त- मोहे, नेयाउयं दट्ठमदट्टुमेव ॥५ ॥
प्रमादी पुरुष के लिए धन, इस लोक अथवा परलोक में त्राण ( शरण) दाता, रक्षक नहीं होता। अंधेरी गुफा में जिसका दीपक बुझ गया हो, ऐसा अनन्त मोही जीव सुपथ मोक्ष मार्ग को देखकर भी नहीं देख
पाता ॥५॥
The wealth cannot protect the careless man in this world and the next. As whose lamp has blown out in a dense cave could not see even the known way. So the extremely illusioned man could not see the path of salvation. (5)
सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध-जीवी, न वीससे पण्डिए आसु - पन्ने घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारण्ड पक्खी व चरेऽप्पमत्तो ॥६॥
उचित कार्य में शीघ्र प्रवृत्त होने वाली बुद्धि का स्वामी (आशु प्रज्ञ) ज्ञानी साधक मोहनिद्रा में सोए हुए लोगों के बीच में रहकर भी जागृत रहे। क्षणभर का भी विश्वास न करे। काल (क्षण ) भयानक है, शरीर दुर्बल है अतः भारण्ड पक्षी के समान सदा अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिए ॥ ६ ॥
The wise and prudent should remain always alert, though living amidst the souls slept in illusion, should not believe a moment, times are hard, the body-frame is feeble. So be always careful like the bird Bhāranda. (6)
चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मण्णमाणो । लाभन्तरे जीवि वूहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥७॥
साधक पग-पग पर दोषों की संभावना से सावधानी पूर्वक विचरण करे। छोटे-छोटे दोषों को भी पाश (जाल) माने। जब तक गुणों का लाभ हो तब तक शरीर को धारण करे और जब लाभ न होता दीखे तो धर्म-साधना पूर्वक शरीर को त्याग दे ॥७॥
Adept (HT) at every step should remain alert from the probabilities of faults. Consider as a snare even the meagre faults. Support the body till it is helpful for getting the stake; and if it is not helping then bereave it. (7)
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छन्द निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय- वम्मधारी । पुव्वाइं वासाई चरेऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्यमुवेइ मोक्खं ॥८॥
जिस प्रकार कवच युक्त शिक्षित अश्व स्वच्छन्दता के निरोध से युद्ध में विजयी होता है, उसी प्रकार स्वेच्छाचार - त्यागी मुनि शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। इसीलिए मुनि पूर्व वर्षों में (साधना के प्रारम्भिक वर्षों से ही ) अप्रमत्त होकर विचरण करे ॥८ ॥
As the armoured and trained horse wins by obstructing despocity, so the monk renouncing the waywardness attains liberation quickly. That is for, the monk should be full of care from the beginning year of his practice. (8)
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