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४१] चतुर्थ अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
चतुर्थ अध्ययन : असंखयं
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का असंखयं (संस्कृत रूपान्तर-असंस्कृत) नाम प्रथम गाथा के प्रथम शब्द पर आधारित है। यह नाम समवायांग में दिया गया है। इसका अर्थ है-जिसे सांधा न जा सके, टूटने के बाद जोड़ा न जा सके, जो मरम्मत के योग्य न (irreparable) हो।
नियुक्ति में इस अध्ययन का गुणपरक नाम प्रमादाप्रमाद (Carefulness v/s Carelessness) है। इस नाम को अंग्रेजी अनुवाद में प्रो. हरमन जेकोबी ने भी स्वीकार किया है।
इससे पहले तीसरे अध्ययन में मोक्ष-प्राप्ति के चार अंगों का वर्णन किया गया था, जिनमें प्रथम अंग मनुष्यत्व है।
लेकिन मानव जीवन बहुत दीर्घ नहीं है, क्षण-विनाशी है, काल के किस क्षण में आयुष्य की कच्ची डोरी टूट जाय, कुछ निश्चित नहीं है। वस्तुतः मानव का जीवन ऐसी कच्ची डोर के समान है, जिसे एक बार टूटने पर पुनः सांधा नहीं जा सकता। ___ अतः प्रस्तुत अध्ययन में मानव को यही प्रेरणा दी गई है कि इस असंस्कृत मानव जीवन को पाकर प्रमाद का त्याग कर दे, प्रमादी बनकर जीवन को व्यर्थ न खोए, एक-एक क्षण का सदुपयोग करे।
यह संपूर्ण अध्ययन प्रमाद-अप्रमाद का विवेचन करता है।
इसमें बताया गया है कि भाई, बन्धु, स्त्री-पुत्र आदि परिवारी और मित्रजन, जिनके लिए व्यक्ति पाप कर्म करता है, फल भोगने में वे उसके भागीदार नहीं होते। कृत कर्मों का फल उस अकेले व्यक्ति को ही भोगना पड़ेगा; क्योंकि कर्म सत्य हैं और उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता। __मरण के समय धन आदि सांसारिक वैभव प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते। धन आदि को यहीं छोड़कर जाना पड़ता है।
साथ ही इस अध्ययन द्वारा, उस युग में प्रचलित मिथ्या मान्यताओं और धारणाओं की निस्सारता को भी उजागर किया गया है।
प्रमाद और अप्रमाद का विवेक करके प्रस्तुत अध्ययन में अप्रमाद के मूल सूत्रों को बहुत ही प्रेरणात्मक शैली में समझाया गया है।
प्रस्तुत अध्ययन में मात्र १३ गाथाएँ हैं।
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