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३७] तृतीय अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एवमावट्ट-जोणीसु, पाणिणो कम्मकिब्बिसा ।
न निविज्जन्ति संसारे, सव्वठेसु व खत्तिया ॥५॥ अनेक योनियों में परिभ्रमण करते हुए, कर्मों से मलिन जीव उसी प्रकार संसार से निवृत्त होने की इच्छा नहीं करते जिस प्रकार क्षत्रिय (ऐश्वर्यशाली, धनाढ्य, सत्तासम्पन्न व्यक्ति) विषय सुख साधनों से निवृत्त होना नहीं चाहते ॥५॥
Thus living beings with dirt of karmas, rotate again and again in numberless classes by birth and death; but they do not even wish to renounce this mortal world as the warriors (rich and powerful men) do not wish to leave of their comforts, luxuries and sensual pleasures. (5)
कम्म-संगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहु-वेयणा ।
अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥६॥ कों के संयोग से मूढ़ बने हुए जीव मानवेतर (पशु, नरक आदि) योनियों में उत्पन्न होकर अत्यधिक त्रास और पीड़ा भोगते हैं ॥६॥
Living beings bewildered through the influence of their karmas taking birth in the classes other than mani.e., (beast and hells) distressed, suffers much pain in those births. (6)
कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइ उ ।
जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्ति मणुस्सयं ॥७॥ (अति दीर्घकाल के पश्चात्) कदाचित् काल क्रम से कुछ आत्मविशुद्धि (मनुष्य भव प्रतिबन्धक कर्मों का क्षय) होने पर वह जीव पुनः मानव-भव को प्राप्त होता है ॥७॥
After a long time, any how according to time order he begets some what purification. Annihilating of human birth obstacling karmas he takes birth as a man. (7)
माणुस्सं विग्गहं लद्धं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पडिवज्जन्ति, तवं खन्तिमहिंसयं ॥८॥ आहच्च सवणं लद्धं, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥९॥ सुइं च लद्धं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं ।
बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ॥१०॥ मानव (मनुष्य) योनि प्राप्त होने पर भी सद्धर्म का श्रवण कठिन है; जिसे सुनकर क्षमा, तप और अहिंसा को स्वीकार किया जा सकता है ॥८॥
सद्धर्म श्रवण का सुयोग मिल जाने पर भी उस पर श्रद्धा होना और भी दुर्लभ है। सच्चा मोक्षमार्ग बजकर भी अनेक व्यक्ति पथभ्रष्ट हो जाते हैं ॥९॥ बहुत से व्यक्ति सद्धर्म सुनकर उस पर श्रद्धा भी कर लेते हैं, वे संयम ग्रहण करने में रुचि भी रखते हैं, संयम ले नहीं पाते। अतः संयम में पुरुषार्थ और भी दुष्कर है ॥१०॥
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