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an सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वितीय अध्ययन [२२
१-क्षुधा-परीषह
दिगिंछा-परिगए देहे, तवस्सी भिक्खु थामवं । न छिन्दे, न छिन्दावए, न पए न पयावए ॥२॥ काली-पव्वंग-संकासे, किसे धमणि-संतए ।
मायने असण-पाणस्स, अदीण-मणसो चरे ॥३॥ अत्यधिक क्षुधा की वेदना होने पर भी दृढ़ मनोबली तपस्वी न स्वयं फलों का छेदन (वृक्ष से फल तोड़ना) करे, न किसी अन्य से छेदन करावे और न स्वयं पकाये, न किसी अन्य से पकवाये ॥२॥
दीर्घकाल की क्षुधा के कारण कौए की जांघ के समान शरीर अत्यन्त दुर्बल (दुबला) और कुश हो जाए, धमनियाँ (शरीर का नसा-जाल) साफ दिखाई देने लगें। फिर भी अशन-पान (आहार-पानी) की मर्यादा को जानने वाला साधु दीनभाव से रहित होकर संयम यात्रा में विचरण करे ॥३॥ (1) Hunger Trouble
Due to the extremity of hunger-agony, may the body be weakened but the ascetic who is firm in self control and does penance, should not pluck the fruits etc., from the trees nor should cause other to pluck, neither cook food himself nor cause others to cook, for eating. (2) ___Due to the long-time hunger, emanciated like the leg of crow or a kind of grass (काली पव्वंग संकासे), lean with veins visible through skin, knowing the permitted measure of food and water, he should wander with non-downcast mind. (3) २-पिपासा (तृषा) परीषह
तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लज्ज-संजए । सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे ॥४॥ छिन्नावाएसु पन्थेसु, आउरे सुपिवासिए ।
परिसुक्क-मुहेऽदीणे, तं तितिक्खे परीसहं ॥५॥ असंयम से दूर रहने वाला लज्जालु संयमी भिक्षु प्यास से अत्यन्त पीड़ित होता हुआ भी शीतल जल (सचित्त जल) का सेवन न करे; अपितु अचित्त-प्रासुक जल की गवेषणा करे ॥४॥
निर्जन एकान्त पथों में भी तीव्र तृषा से व्याकुल होने पर, यहाँ तक कि मुँह (कण्ठ) सूख जाने पर भी साधु दीन भाव से रहित होकर तृषा की पीड़ा को सहन करे ॥५॥ 2. Thirst trouble
The mendicant-afraid of lapse and restrained by shame-oppressed by thirst, should not drink cool (unboiled-सचित्त-शीतल) water. He should search for boiled (उबला हुआ अचित्त) water. (4)
Wandering at lonely path, without water with him, yet oppressed by extreme agony of thirst with dry throat. Still he should not humble himself and bear the thirst trouble. (5)
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