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त सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वितीय अध्ययन [१८
द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति
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पूर्वालोक
उत्तराध्ययन सूत्र के प्रस्तुत द्वितीय अध्ययन का नाम परीषह प्रविभक्ति है। परीषह का अर्थ है-स्वीकृत मोक्षमार्ग से न डिगते हुए, आये हुए कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना। ___ इससे पहले विनयश्रुत अध्ययन में साधक शिष्य को विनय-अनुशासन, सदाचार आदि की प्रेरणा दी गई थी। विनय में परिपक्व साधक अनुशासित तो होता ही है, साथ ही उसमें धीरता, गंभीरता, साहस आदि गुणों का भी संचार हो जाता है। वह निर्भय, निःशंक और कष्टसहिष्णु बन जाता है।
अपने इन्हीं गुणों के कारण वह परीषह विजेता बनता है।
परीषह वे कष्ट हैं, जो परिस्थितियों, ऋतुओं, मनुष्यों, देवों, तिर्यंचों आदि की प्रतिकूलता के कारण आते हैं। यद्यपि इनमें मूल कारण तो साधक के अपने पूर्वकृत कर्म ही होते हैं लेकिन बाह्य निमित्त परिस्थितियों आदि होते हैं।
साधक न तो कष्टों को आमंत्रण देता है, न शरीर व इन्द्रियों को स्वयं ही कष्टित करता है और न ही परीषहों को बेबस होकर सहन करता है। वे तो स्वयं ही उपस्थित होते हैं; किन्तु दृढ़ मनोबली साधक इनसे संत्रस्त और पराजित नहीं होता, आर्तध्यान नहीं करता, संक्लेश नहीं करता; अपितु इन्हें समभाव से सहन करता है।
परीषह अनुकूल भी होते हैं और प्रतिकूल भी; जिन्हें शीत और उष्ण परीषह भी कहा गया है।
प्रस्तुत अध्ययन में २२ परीषहों का वर्णन है, जिनमें स्त्री और सत्कार-ये दो परीषह अनुकूल अथवा शीत परीषह हैं और शेष २० प्रतिकूल अथवा उष्ण परीषह हैं।
इन अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को समभाव पूर्वक सहना साधक जीवन की कसौटी है कि इसकी साधना की जड़ें कितनी गहरी हैं और मोक्षमार्ग पर चलने की दृढ़ता कितनी मजबूत है। ___ इन २२ परीषहों में प्रज्ञा और अज्ञान का कारण ज्ञानावरणीय कर्म; अलाभ का कारण अन्तराय कर्म; अरति, अचेल, स्त्री, निषद्या, याचना, आक्रोश, सत्कार-पुरस्कार का कारण चारित्रमोहनीय कर्म, दर्शन परीषह का कारण दर्शनमोहनीय कर्म तथा शेष परीषहों का कारण वेदनीय कर्म है।
आगम विज्ञों का मत है कि प्रस्तुत अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व के १७वें प्राभृत से उद्धृत है। प्रस्तुत अध्ययन में परीषहों के सन्दर्भ में संयमी साधक की जीवन चर्या का सर्वांगपूर्ण विवेचन है। इस अध्ययन में ३ सूत्र और ४६ गाथाएँ हैं।
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