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४९९ ] षट्त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
अन्तिम भव (जिस जन्म से जीव मुक्त होता है) में जिसकी (जिस मनुष्य की) जितनी ऊँचाई होती है, सिद्धावस्था में उस ऊँचाई की त्रिभाग (एक तिहाई भाग) कम ऊँचाई होती है ॥ ६४ ॥
The height of perfected soul remains two-third of the height of his last birth-body, from which he has attained liberation. ( 64 )
एगत्तेण साईया, अपज्जवसिया वि य ।
पुहुत्तेण अणाईया, अपज्जवसिया विय ॥ ६५॥
एक सिद्ध जीव की अपेक्षा से सिद्ध सादि (आदि सहित ) और अनन्त भी हैं और पृथक-पृथक अनेक जीवों की अपेक्षा से सिद्ध अनादि अनन्त भी हैं ॥ ६५ ॥
Salvated souls considering individually they have beginning but no end but considered separately with the viewpoint of many then they have no beginning, no end. (65)
अरूविणो
जीवघणा,
नाणदंसणसन्निया | अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ॥६६॥
वे सिद्ध जीव अरूपी हैं, घनरूपी सघन हैं, ज्ञानदर्शन संज्ञा से सम्पन्न उपयोगमय हैं, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है, जिसकी कोई उपमा नहीं है ॥ ६६ ॥
Emancipated souls have no (visible) form, of compact pradeśas of soul, conscious, opulent with knowledge and perception and such beatitude which has no comparison. (66)
लोग ते सव्वे, नाणदंसणसन्निया । संसारपारनिच्छिन्ना, सिद्धिं वरगइं गया ॥ ६७॥
वे सभी सिद्ध जीव-ज्ञान-दर्शन से संपन्न ( युक्त), संसार से पार पहुँचे हुए, परमगति-सिद्धि को प्राप्तलोक के एक देश (भाग) में अवस्थित हैं ||६७॥
All those perfected souls opulent with knowledge and perception, crossed the boundry of world, reached in excellent salvation existence, reside in a part of universe (loka ). ( 67 )
संसारस्थ (संसारी) जीवों की प्ररूपणा
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संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया । तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं ॥ ६८॥
संसारस्थ (संसार में अवस्थित - संसारी) जीवों के दो भेद कहे गये हैं - ( १ ) त्रस और (२) स्थावर। इनमें से स्थावर जीवों के तीन भेद (प्रकार) हैं || ६८ ॥
The mundane souls (living beings still belong to worldly ties) are said of two kinds-(1) mobiles and (2) immobiles. Among these the immobiles are of three types. (68)
स्थावर जीव- प्ररूपणा
पुढवी आउजीवा य, तहेव य वणसई । इच्चेए थावरा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥६९॥
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