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an सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
पंचस्त्रिश अध्ययन [४८०
(५) पंचम सूत्र : आहार पचन-पाचन निषेध
तहेव भत्तपाणेसु, पयण-पयावणेसु य ।
पाण-भूयदयट्ठाए, न पये न पयावए ॥१०॥ इसी प्रकार भक्त और पान (आहार तथा जल) के पकाने और पकवाने के संबंध में भी जानना चाहिए कि इसमें भी जीवों की हिंसा होती है। अतः प्राणी और भूतों की दया के लिए (भिक्षु) न स्वयं (भक्त-पान) पकाये और न किसी दूसरे से पकवाए ॥१०॥
The same should be known about cooking the food and water, that the living beings are killed in this also. Therefore, out of compassion for living beings, mendicant should not cook by himself nor cause others to cook for him. (10)
जल-धन्ननिस्सिया जीवा, पुढवी-कट्ठनिस्सिया ।
हम्मन्ति भत्तपाणेसु, तम्हा भिक्खू न पायए ॥११॥ जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ (ईंधन) के आश्रित बहुत से जीव होते हैं उनका हनन (हिंसा) हो जाता है, इस कारण भिक्षु न स्वयं पकाये और न दूसरे से पकवाये ॥११॥
There are innumerable beings in water, grain, earth and fuel, they are killed, so mendicant should not cook nor cause others to cook. (11)
विसप्पे सव्वओधारे, बहुपाणविणासणे ।
नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोइं न दीवए ॥१२॥ अग्नि के समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं है। यह सभी ओर फैल जाता है तथा तीक्ष्ण धार वाला है, बहुत जीवों का विनाशक-प्राणघातक है, इसलिए अग्नि (ज्योति) दीपित-प्रज्वलित न करे ॥१२॥
There is no dangerous weapon like fire. It spreads in all the directions, of sharp edge and destructor of innumerable beings, so one (mendicant) should not light fire. (12) (६) छठा-सूत्र : क्रय-विक्रय वृत्ति-निषेध, भिक्षावृत्ति का विधान
हिरण्णं जायरूवं च, मणसा वि न पत्थए ।
समले/कंचणे भिक्खू, विरए कयविक्कए ॥१३॥ सोने और मिट्टी के ढेले को समान समझने वाला भिक्षु सुवर्ण और रजत (चाँदी) की मन से भी इच्छा न करे और सभी प्रकार की वस्तुओं के क्रय-विक्रय से विरक्त रहे ॥१३॥
A mendicant who takes gold and clod of clay alike, should not desire gold and silver, even by mind and should remain abstain from buying and selling. (13)
किणन्तो कइओ होइ, विक्किणन्तो य वाणिओ ।
कयविक्कयम्मि वट्टन्तो, भिक्खू न भवइ तारिसो ॥१४॥ वस्तु को खरीदने वाला क्रयिक (ग्राहक) और बेचने वाला (विक्रय करने वाला) वणिक (व्यापारी) होता है। क्रय-विक्रय में प्रवृत्त भिक्षु तो (भिक्षु के लक्षणों से युक्त) भिक्षु ही नहीं होता ॥१४॥
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