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in सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [४४४
Thus the objects of senses and mind are the cause of pains to a passionate man but do not cause the least pain to an impassionate. (100)
न कामभोगा समयं उवेन्ति, न यावि भोगा विगई उवेन्ति ।
जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥१०१॥ कामभोग (अपने आप में) न तो समता-समभाव उत्पन्न करते हैं और न ही वे भोग विकृति पैदा करते हैं। जो उनके प्रति प्रद्वेष और परिग्रह (ममत्व-राग) रखता है वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त करता है ॥१०॥
The sensual and mental pleasures, rejoicings and amusements do not generate by themselves the evenness or equanimity nor agitation of merriment. Who has attachment and detachment to them, by the dint of his own infatuation gets agitation. (101)
कोहं च माणं च तहेव मायं, लोहं दुगुंछं अरइं रइं च ।
हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे ॥१०२॥ क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद तथा अन्य विविध भावों को-||१०२॥
Anger, pride, deceit, greed, hate, aversion, inclination, mirth, fear, sorrow, carnal desire of man, woman and eunuch and various other feelings-(102)
आवज्जई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । __ अन्ने य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से ॥१०३॥ इसी तरह अनेक प्रकार के विकारों को कामगुणों में आसक्त जीव प्राप्त करता है तथा इन भावों से प्राप्त होने वाले नरकादि दुःखों को पाता है तथा वह करुणास्पद, हीन, लज्जित और द्वेष का पात्र बन जाता है ॥१०॥
And likewise various types of agitations, and addicted to sensual pleasures, such soul attains all these feelings and obtains the agonies of hells etc., which are the consequences of these feelings and he becomes pitiable, inferior, ashamed and object of hate. (103)
कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू, पच्छाणुतावेय तवप्पभावं ।
एवं वियारे अमियप्पयारे, आवज्जई इन्दियचोरवस्से ॥१०४॥ (वीतराग के पथ का पथिक साधु) अपने शरीर की सेवा सहायता की लिप्सा से योग्य शिष्य की इच्छा न करे, दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात पश्चात्ताप करके अथवा अनुतप्त होकर तप के प्रभाव की भी इच्छा न करे क्योंकि इस प्रकार की इच्छाओं से साधक इन्द्रिय चोरों के वश में होकर अनेक प्रकार के विकारों दोषों से ग्रस्त हो जाता है, उनको प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥ ___ Sage, follower of the path of attachment-free-Jina, should not desire the able pupil for the service and help of his own body, after accepting consecration, becoming agitated should not regret and does not wish have the desire of effect of penance; because by these types of desires the adept is subjugated by the senses and gripped by many faults and defects. (104)
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