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४४३] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र ,
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते ।
एवं अदत्ताणि समाययन्तो, भावे अतित्तो दुहिणो अणिस्सो ॥१६॥ झूठ बोलने के बाद, बोलने से पहले और बोलते समय भी वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखपूर्ण होता है। इस तरह भाव में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ वह दुःखी और अनाश्रित हो जाता है ॥१६॥
Before, after and while speaking deceitful false, he becomes sorrowful and consequence is also full of pains. Thus discontented in feelings and by stealing he becomes miserable and protectionless. (96)
भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? |
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥१७॥ भाव में अनुरक्त मनुष्य को कदाचित, किंचित् सुख भी कहाँ हो सकता है ? जिस उपभोग के लिए वह दुःख सहता है, उस उपभोग में भी क्लेश-दुःख बना रहता है ॥९७॥
How a man can be delighted, indulged in pleasant feelings. For which he suffers, he does not get joy while experiencing those. (97)
एमेव भावम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥१८॥ इसी प्रकार जो (अप्रिय-असुखकर) भाव के प्रति द्वेष करता है, वह अनेक दुःखों की परम्पराओं को पाता है। प्रदुष्ट (द्वेष से क्लिष्ट) हृदय वाला व्यक्ति जिन कर्मों का संचय करता है, वही कर्म विपाक काल में उसके लिए दुःख के हेतु बनते हैं ॥१८॥
In the same way, who bitterly hates unpleasant feelings, he gets the chains of many kinds of pains. Hateful hearted man acquires which karmas, they also become the cause of pains at the time of fruition. (98)
भावे विरत्तो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥९९॥ भाव से विरक्त मानव शोक-मुक्त बन जाता है। जिस प्रकार कमलिनी का पत्र (पत्ता) जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार वह मानव संसार में रहता हुआ भी अनेक दुःख परम्पराओं से लिप्त नहीं होता ||९९॥
The person indifferent to pleasant and unpleasant feelings becomes free of sorrow. Just as the lotus-leaf is not moistened by water remaining in large pond full of water, so that indifferent person living in this world is not effected by chains of pains. (99)
एविन्दियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो ।
ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेन्ति किंचि ॥१00॥ ___ इस प्रकार जो इन्द्रियों और मन के विषय हैं, वे रागी मनुष्य के लिए दुःख के कारण हैं। वे ही विषय वीतराग के लिए कदापि और किंचित् भी दुःखरूप नहीं बनते हैं ॥१०॥
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