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४३९ ] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
Who is sharply indulged in pleasant touch and hates unpleasant, that ignorant person gets the painful suffering and the person, indifferent to both types of touches remains uneffected. (78)
फासाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ Sगरूवे । चित्ते हि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरु किलिट्टे ॥७९॥
( मनोज्ञ) स्पर्श की प्राप्ति की आशा का अनुगमन करने वाला अनेक प्रकार के चर-अचर (स-स्थावर) जीवों की हिंसा करता है। अपने स्वार्थ को गुरुतर (सर्व प्रमुख) मानने वाला वह राग-द्वेष से पीड़ित - क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन जीवों को परिताप देता है और पीड़ित करता है ॥ ७९ ॥
Keen indulged to pleasant touches, such person injures the mobile and immobile living beings by various ways. Supposing his own purpose super-most and agitated by attachment and detachment that ignorant person torments and tortures them by different methods. (79)
फासाणुवाएण परिग्गहेण,
उपाय
रक्खणसन्निओगे | वए विओगे य कहिं सुहं से ?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥८०॥
मनोज्ञ स्पर्श के प्रति अनुरक्ति और परिग्रह के प्रति ममत्व होने से उसके उत्पादन, सुरक्षा और व्यवस्था (सन्नियोग) में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? तथा उपभोग करते समय भी तृप्ति का लाभ नहीं होता ॥८०॥
Due to much more fascination to pleasant touch and feelings of myness and seizing, how can he be delighted in producing, keeping, using, losing and missing those pleasant touches. Even at the moment can not get satisfaction. ( 80 )
फासे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अट्ठदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ८१ ॥
स्पर्श में अतृप्त तथा परिग्रह में प्रगाढ़ रूप से आसक्त को संतुष्टि प्राप्त नहीं होती । असन्तुष्टि के दोष से दुःखित और लोभाविष्ट होकर वह दूसरों की बिना दी हुई ( अदत्त) वस्तु को चुरा ( ग्रहण कर ) लेता है ॥८१॥
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Dissatisfied in pleasant touches and keenly indulged in seizing them, he cannot be contented. Suffering from the pain caused by dissatisfaction and overwrought by greediness he takes others' pleasant touches (soothing things) ungiven by them-he steals those things. (81)
तहाभिभूयस्स
अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुखं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ८२ ॥
तृष्णा से अभिभूत तथा अदत्त का हरण करने वाला, एवं स्पर्श में और परिग्रह में अतृप्त व्यक्ति के लोभदोष के कारण छल-कपट तथा मृषावाद-झूठ बढ़ जाते हैं लेकिन छल करने और झूठ बोलने से भी उसका दुःख नहीं मिटता ॥८२॥
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