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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [४३८
कायस्स फासं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।।७४॥ स्पर्श को काय (शरीर) का ग्राह्य विषय कहा जाता है। जो स्पर्श राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जिस स्पर्श के कारण द्वेष उत्पन्न होता है, वह अमनोज्ञ कहलाता है तथा जो इन दोनों में (समभाव युक्त) रहता है, वह वीतरागी है ॥७४॥
Touch is said the object of body (skin). Smooth or pleasant touch is the cause of attachment and rough or unpleasant touch is the cause of detachment. Who remains equanimous in both types of touches, he is attachment-free. (74)
फासस्स कायं गहणं वयन्ति, कायस्स फासं गहणं वयन्ति ।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुनमाहु ॥७॥ काय को स्पर्श का ग्राहक और स्पर्श को काय का ग्राह्य विषय कहा जाता है। जो स्पर्श राग का हेतु है वह समनोज्ञ कहा जाता है और द्वेष का हेतु-कारण स्पर्श अमनोज्ञ कहा जाता है ॥७॥
Skin is called the grasper of touch and touch is called the grasped object of skin. The touch, which is the cause of attachment is said soothing and which causes detachment is said rough touch. (75)
फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं ।
रागाउरे सीयजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व ऽरन्ने ॥७६।। जो (मनोज्ञ) स्पर्श में तीव्रतापूर्वक गृद्ध है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है उसी प्रकार जैसे वन में शीतल जल के स्पर्श में आतुर बना हुआ भैंसा मगर (ग्राह) द्वारा पकड़ लिया जाता है ||७६॥
Who is extensively indulged in smooth touch, he gets prematured death just as hebufallow addicted to the touch of cold water is caught by crocodile. (76)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि फासं अवरज्झई से ॥७७॥ जो अमनोज्ञ स्पर्श में तीव्र द्वेष करता है वह प्राणी तत्काल उसी क्षण अपने ही दुर्दमनीय दोष के कारण दुःख पाता है। इसमें स्पर्श का कुछ भी अपराध या दोष नहीं है ||७७||
Who keenly hates the unpleasant touch, he at the same moment attains pain due to his own unsubdued blemish. There is not a bit of fault of touch in it. (77)
एगन्तरत्ते रुइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥७८॥ जो रुचिर (सुखद रुचिकर) स्पर्श में अत्यधिक आसक्त होता है तथा इसके विपरीत अरुचिकर-असुखद स्पर्श के प्रति प्रद्वेष (विशेष द्वेष) रखता है, वह अज्ञानी दुःखजनित पीड़ा को प्राप्त करता है तथा विरागी मुनि (सुखद और दुःखद दोनों प्रकार के स्पर्शों में राग-द्वेष न करके) उनमें लिप्त नहीं होता ॥७॥
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