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an सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [४३६
The person who is keenly addicted to delicious taste and extensively hates the undelicious taste that ignorant suffers the agony caused by pain. But the person indifferent to delicious and undelicious taste remains uneffected. (65)
रसाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिट्टे ॥६६॥ रस की आशा करता हुआ जीव अनेक प्रकार से चराचर (बस-स्थावर) जीवों की हिंसा करता है। अपने स्वार्थ को ही सर्वोपरि मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी उन (चराचर) जीवों को विचित्र-विचित्र प्रकार से अनुतापित और पीड़ित करता है ॥६६॥
A person keenly desirous of delicious tastes injures mobile and immobile living beings in many ways. Becoming intent to his own desire ignorant person tortures and torments them by various methods. (66)
रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से ? , संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥६७॥ (मनोज्ञ) रस में अधिक राग और परिग्रह में ममत्व होने से उस (रस) को उत्पन्न करने, उसकी भली-भाँति रक्षा करने, सन्नियोग तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कैसे मिल सकता है ? और उस मनोज्ञ रस का उपभोग करते समय भी अतृप्ति का ही दुःख होता है, तृप्ति नहीं होती ॥६७॥
Due to much more love to delicious tastes and feelings of myness and seizing how can he become delighted in producing, keeping, using, losing and missing those delicious tastes, Even while enjoying he can not be satiated, remains always dissatisfied. (67)
रसे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुष्टुिं ।
अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥६८॥ रस में अतृप्त और उसके परिग्रह में अत्यधिक आसक्त-रचे-पचे रहने वाले (सत्तोवसत्तो) व्यक्ति को तुष्टि की प्राप्ति नहीं हो पाती, वह अपने असंतुष्टि दोष से दुःखी और लोभाविष्ट होकर दूसरों के पदार्थ (रसयुक्त पदार्थ) उनके बिना दिये ही, अदत्त रूप से ले लेता है, चुरा लेता है ॥६८॥
Dissatisfied in delicious taste and sharply indulged in seizing them, he can not be contented. Suffering from the pain caused by dissatisfaction and overwrought by greediness he takes others' delicious dainties ungiven by them-he steals those. (68)
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥६९॥ तृष्णा से अभिभूत (पराजित), रस और परिग्रह से अतृप्त, दूसरों के रसयुक्त पदार्थों का अपहरण करने वाले के लोभ-दोष के कारण कपट और मृषा (असत्य) बढ़ जाते हैं। किन्तु इन (कपट और असत्य) का प्रयोग करने पर भी उसका दुःख नहीं मिटता ॥६९॥
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