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४२५] दश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
जिब्भाए रसं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुनमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥६१॥ जिह्वा का ग्राह्य विषय रस (स्वाद) है। जो रस राग का हेतु बनता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो रस द्वेष उत्पन्न करने वाला होता है, वह अमनोज्ञ कहलाता है तथा जो रस में सम-समभाव रखता है, वह वीतरागी होता है ॥६१॥
Object of tongue is taste. The taste which becomes the cause of attachment called delicious and the cause of detachment called undelicious. But who is equanimous in both types of tastes, he is free of attachment. (61)
रसस्स जिब्भं गहणं वयन्ति, जिब्भाए रसं गहणं वयन्ति ।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुनमाहु ॥६२॥ जिह्वा को रस की ग्रहण करने वाली और रस को जिह्वा का ग्राह्य विषय कहा जाता है। राग के हेतु रस को समनोज्ञ और द्वेष के कारणभूत रस को अमनोज्ञ कहा गया है ॥६२॥
Tongue grasps the taste and taste is grasped by tongue. Taste which is the cause of attachment is called delicious and undelicious taste causes detachment. (62)
रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं ।
रागाउरे वडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥६३॥ जो व्यक्ति (मनोज्ञ) रसों में अत्यन्त गृद्ध होता है वह अकाल में उसी तरह विनाश को पाता है जिस प्रकार मांस-भोजन के लुब्धक रागातुर मत्स्य का शरीर (गला-कंठ) लोहे के काँटे से विंध जाता है (और उसकी मृत्यु हो जाती है) ॥६३॥
A person who is indulged deeply in delicious tastes he untimely ruins like the fish who is lustful of eating meat, swallows the bait and rushes into the jaws of death. (63)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, रसं न किंचि अवरज्झई से ॥६४॥ जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र-अत्यन्त उग्र द्वेष करता है वह प्राणी उसी क्षण (तत्काल) अपने दुर्दम्य द्वेष-दोष के फलस्वरूप दुःख पाता है। इस (दुःख) में रस का बिल्कुल भी अपराध अथवा दोष नहीं है ॥६४॥
Who extremely hates the undelicious taste, he at the same moment suffers by the agony of pain due to his own sharp detachment. In this agony taste is not responsible. (64)
एगन्तरत्ते रुइरे रसम्मि, अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥६५॥ ___ जो व्यक्ति रुचिर (रुचिकर-स्वाद) रस में अत्यधिक रक्त हो जाता है और उसके प्रतिकूल (अरुचिकर-रस-स्वाद) रस में द्वेष करता है वह अज्ञानी दुःखजन्य पीड़ा (कष्ट) को पाता है। लेकिन विरक्त मुनि (मनोज्ञ-अमनोज्ञ रस-सम्बन्धी राग-द्वेष में) लिप्त नहीं होता ॥६५॥
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