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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [ ४३०
जो रुचिर (प्रिय) शब्दों में एकान्त रूप से अत्यधिक आसक्त होता है और अतादृश ( प्रतिकूल ) शब्द में प्रद्वेष करता है वह अज्ञानी दुःख के समूह से पीड़ा प्राप्त करता है। लेकिन विरागी मुनि उसमें लिप्त नहीं होता (निर्लिप्त रहता है) ॥३९॥
Who is keenly addicted to pleasant sounds and hates unpleasant sounds., that ignorant suffers by groups of pains. But indifferent monk is not effected. (39)
सद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परियावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरु किलिट्ठे ॥४०॥
( मनोज्ञ) शब्द की इच्छा करने वाला अनेक प्रकार से चराचर - त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने ही स्वार्थ को प्रधानता देने वाला क्लिष्ट अज्ञानी व्यक्ति उन्हें (उन जीवों को) विभिन्न प्रकार से परितापित और पीड़ित करता है ॥४०॥
Who is keenly desirous of sweet sounds, he injures mobile and immobile beings by different ways. Giving importance to only his own desires the ignorant person torments and tortures them by various ways. (40)
परिग्गहेण,
सद्दाणुवारण उप्पायणे रक्खण- सन्निओगे । व विओगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥४१॥
शब्द के प्रति अधिक अनुराग और ममत्व (परिग्रह) के कारण उसके उत्पादन (उत्पन्न करने), एवं रक्षा करने, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में सुख कहाँ है ? उसके उपभोग समय में भी अतृप्ति ही मिलती है, तृप्ति प्राप्त नहीं होती ॥४१॥
Due to much more love to sweet sounds and feeling of myness to seizing, how can he be delightful while he produces, keeps, uses, loses and misses those sounds. Even when he enjoys, he does not feel satiety, always remains dissatisfied. (41)
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सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि ।
दोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ४२ ॥
शब्द में अतृप्त और परिग्रह में प्रगाढ़ आसक्त व्यक्ति को तुष्टि प्राप्त नहीं होती । असंतुष्टि के दुःख से दुःख तथा लोभ से व्याकुल व्यक्ति दूसरों की अदत्त वस्तुओं को ले लेता है - चोरी करता है ॥४२॥
Dissatisfied in sweet sounds and much more indulged in seizing them such man can never be satisfied. Suffering from pain caused by dissatisfaction and overwrought by greed the person steals the things of other persons. ( 42 )
तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥४३॥
तृष्णा से अभिभूत, अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करने -- हरण करने- चुराने वाला, शब्द और परिग्रह से अतृप्त होने वाले व्यक्ति का उसके लोभ जनित दोष के कारण कपट और झूठ बढ़ता जाता है। लेकिन कपट और झूठ के प्रयोग से भी उसका दुःख नहीं मिटता ॥४३॥
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