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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
The penancer sage desirous of contemplation should seek for limited and faultless food, wish for expert and intelligent helper and desire for lonely bed and lodge unfrequented by women, beast and eunuch. (4)
द्वात्रिंश अध्ययन [ ४२२
न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाइ विवज्जयन्तो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥५॥
यदि निपुण सहायक, अपने से अधिक गुणों वाला अथवा समान गुणवाला सहायक न प्राप्त हो सके तो पापों को वर्जित करता हुआ और काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला - एकाकी ही विचरण करे ॥५ ॥
If he could not get the helper-companion more proficient or equal in virtues then avoiding sins and unaddicted to empirical pleasures, he should wander alone. (5)
जहा य अण्डप्पभवा बलागा, अण्डं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ॥ ६ ॥
जैसे बगुली (बलाका) अण्डे से उत्पन्न होती है और अण्डा बगुली से उत्पन्न होता है। वैसे ही मोह का आयतन (घर-जन्मस्थान), तृष्णा है और तृष्णा का आयतन ( घर - जन्मस्थान) मोह को कहा गया है ॥ ६ ॥
As the crane produced from egg and egg produced from crane, so the origin of infatuation is desire and infatuation is called origin or abode of desire. (6)
रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । कम्मं च जाई - मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई - मरणं वयन्ति ॥७॥
राग और द्वेष ये दोनों कर्म के बीज हैं और कर्म को मोह से उत्पन्न हुआ कहा गया है तथा कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण को ही दुःख कहा गया है ॥७॥
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Attachment and detachment-both are the root causes (seeds) of karmas and karma is originated by infatuation and only karma is the root of births and deaths and these (births and deaths) are called the miseries. (7)
दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तहा ।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥८ ॥
जिसको मोह नहीं होता उसका दुःख नष्ट हो जाता है, जिसको तृष्णा नहीं होती उसका मोह नष्ट हो जाता है, तृष्णा के समाप्त हो जाने पर लोभ विनष्ट हो जाता है और जिसका लोभ नष्ट हो जाता है उसके पास कुछ नहीं रहता, वह अकिंचन हो जाता है ॥८॥
Who has no infatuation his misery ceases, infatuation ceases who has no desire, in absence of desire greed ceases and whose greed is ceased he possessed nothing and becomes possessionless. (8)
रागं च दोसं च तहेव मोह, उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुव्विं ॥९॥
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