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________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र परमाधार्मिक-परम-अधार्मिक अर्थात् पापाचारी क्रूर एवं निर्दय असुर जाति के देव हैं। इनके हिंसाकर्मों का अनुमोदन नहीं करना गाथा षोडशक- (सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन) समह प्रकार का असंयम १-९ पृथिवीकाय, अपूकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियउक्त नौ प्रकार के जीवों की हिंसा करना, कराना, अनुमोदन करना। १०. अजीय असंयम- अजीब होने पर भी जिन वस्तुओं के द्वारा असंयम होता हो, उन बहुमूल्य वस्त्र पान आदि का ग्रहण करना अजीव असंयम है। ११. प्रेक्षा असंयम - जीवसहित स्थान में उठना बैठना, सोना आदि । १२. उपेक्षा असंयम- गृहस्थ के पाप कर्मों का अनुमोदन करना। १३. अपहृत्य असंयम - अविधि से किसी अनुपयोगी वस्तु का परठना। इसे परिष्ठापना असंयम भी कहते हैं। १४. प्रमार्जना असंयम - वस्त्र पात्र आदि की प्रमार्जना न करना । १५. मनः असंयम-मन में दुर्भाव रखना। १६. वचन असंयम कुवचन या असत्य बोलना। १७. काय असंयम - गमनागमनादि क्रियाओं में असावधान रहना। (समवायांग १७) अठारह अब्रह्मचर्य - देवसम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काय से स्वयं सेवन करना, दूसरों से करवाना, तथा करते हुए को भला जानना मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी औदारिक भोगों के भी इसी तरह नौ भेद समझ (समवायांग १८) इस प्रकार नौ भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी होते हैं लेने चाहिये। कुल मिलाकर अठारह भेद होते हैं एकत्रिंश अध्ययन [ ४१२ ज्ञाता धर्म कथा के १९ अध्ययन बीस असमाधि स्थान- देखें समवायांग २० इक्कीस शबल दोष- ( दशाश्रुतस्कन्ध, दशा २) बाईस परीषह - देखिये, उत्तराध्ययन का दूसरा परीषह अध्ययन । Jain Education International गाथा १६ - सूत्रकृतांग सूत्र के २३ अध्ययन उक्त तेईस अध्ययनों के कथानानुसार संयमी जीवन न होना, दोष है। चौबीस देव यहाँ रूप का अर्थ एक है। अतः पूर्वोक्त तेईस संख्या में एक अधिक मिलाने से रूपाधिक का अर्थ २४ होता है। चौबीस प्रकार के देव १० असुरकुमार आदि दशभवनपति, भूत-यक्ष आदि आठ व्यन्तर, ५ सूर्य-चन्द्र आदि पाँच ज्योतिष्क और एक वैमानिक देव इस प्रकार कुल चौबीस जाति के देव हैं। इनकी प्रशंसा करना भोग-जीवन की प्रशंसा करना है और निन्दा करना द्वेषभाव है। अतः मुमुक्षु को तटस्थ भाव ही रखना चाहिये। - समवायांग में २४ देदों से २४ तीर्थंकरों को ग्रहण किया गया है। पाँच महाव्रतों की २५ भावनायें - (विस्तार के लिये देखें भावना योग आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी ) दशाश्रुत आदि तीनों सूत्रों के २६ उदेशन काल दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र के दश उद्देश, बृहत्कल्प के छह उद्देश और व्यवहार सूत्र के दश उद्देश इस प्रकार तीनों के छब्बीस उद्देश होते हैं। जिस श्रुतस्कन्ध या अध्ययन के जितने उद्देश होते हैं उतने ही यहाँ उद्देशन काल अर्थात् श्रुतोपचार रूप उद्देशावसर होते हैं। एक दिन में जितने श्रुत की वाचना (अध्यापन) दी जाती है उसे एक उद्देशन काल कहा जाता है। सत्ताईस अनगार के गुण देखें समवायांग २७ (१-५) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों का सम्यक् पालन करना। (६) रात्रि भोजन का त्याग करना (७-११) पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना (१२) भाव सत्य-अन्तःकरण की शुद्धि (१३) करण सत्य - वस्त्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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