SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र एकत्रिंश अध्ययन [४०१ इकत्तीसवाँ अध्ययन : चरण-विधि पूर्वालोक प्रस्तुत अध्ययन का नाम चरण-विधि है। चरण-विधि का अर्थ है चारित्र विधि। चारित्र का ज्ञान करके, भली-भाँति समझकर उसे विवेक पूर्वक धारण करना, उसका आचरण करना। ___ यह अध्ययन संख्याप्रधान है। स्थानांग और समवायांग के समान संख्या को माध्यम बनाया गया है। १से ३३ तक की संख्याओं के माध्यम से श्रमण के चारित्र के विविध गुणों/पक्षों का वर्णन किया गया है। ज्ञान से संबंधित भी कुछ बातें बताई गई हैं; पर प्रमुखता चारित्र की है। ___ चारित्र साधु-साध्वियों के लिए मेरुदण्ड है। इसी कारण प्रस्तुत अध्ययन में साधक द्वारा हेय-ज्ञेय-उपादेय से चारित्र-वर्द्धक गुणों और क्रिया-प्रवृत्ति को चयन करने की विधि का वर्णन किया गया है। चारित्र का प्रारम्भ ही संयम से होता है। अतः असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति ही चारित्र विधि है। सम्यक् प्रवृत्ति ही अन्त में अप्रवृत्ति के रूप में प्रतिफलित होती है। पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म, सम्यक्तप, कषाय-विजय आदि सब चारित्र के ही अंग हैं। प्रस्तुत अध्ययन में साधक को पग-पग पर सावधान किया है कि वह संयम में आगे बढ़कर पुनः पीछे न हटे। इसी दृष्टि से राग-द्वेष, विराधना, अशुभ लेश्या, क्रियास्थान, कषाय, पांच अशुभ क्रियाएँ, असमाधिस्थान, शबल दोष, महामोह स्थान आदि विघ्नों पर दृष्टिपात करके उनसे बचने की प्रेरणा भी दी गई है। __ मूल में असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति का सन्देश मुखरित है। किन्तु साधक फूलों के साथ शूलों को भी अपनी झोली में न भर ले, इसी कारण दोषों की ओर भी संकेत किया गया है तथा उनको विवेचित भी किया गया है। साधक को चाहिए कि रागात्मक प्रवृत्तियों से दूर रहे। किसी भी कारण से चित्त में उद्वेग उत्पन्न न होने दे। आसव हेतुओं का वर्जन करे। आत्म-संलीनता-समाधि में रहे और असमाधिस्थानों से दूर रहे। संक्षेप में दुष्प्रवृत्तियों से दूर रहकर सत्प्रवृत्तियों में साधक सतत प्रयत्नशील रहे। यही इस अध्ययन का सन्देश और प्रेरणाबिन्दु है। इसकी (चरण विधि की) फलश्रुति भी अन्त में मोक्ष प्राप्ति बताई गई है। प्रस्तुत अध्ययन में २१ गाथाएँ हैं। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy