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त सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
प्रथम अध्ययन [६
कण-कुण्डगं चइत्ताणं, विट्ठ भुंजइ सूयरे ।
एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए ॥५॥ जैसे चावल मिश्रित भूसी को छोड़कर सूअर विष्ठा खाता है, वैसे ही (मृग) पशु प्रवृत्ति वाला शिष्य शील (उत्तम आचार) को छोड़कर निम्न कोटि के आचरण (दुःशील) में प्रवृत्त होता है ॥५॥
As a pig leaving the trough of rice, eats fifth; so a beast-natured pupil abandons good-behaviour and indulges himself in ill-conduct. (5)
सुणियाऽभावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य ।
विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो ॥६॥ अपनी आत्मा का हित चाहने वाला साधु सड़े कानों वाली कुतिया और विष्ठा खाने वाले सूअर के समान अपनी हीन (तिरस्कृत) स्थिति को समझे और अपने आपको (अपनी आत्मा को) विनय धर्म में स्थापित करे ॥६॥
Hearing a man (indisciplined disciple) thus compared with a sore-ear bitch and pig, desirous of self-welfare should adhere himself to well conduct and discipline. (6)
तम्हा विणयमेसेज्जा, सीलं पडिलभे जओ ।
बुद्ध-पुत्त नियागट्ठी, न निक्कसिज्जई कण्हुई ॥७॥ शील (सदाचार) की प्राप्ति के लिए विनय का पालन करना चाहिए (क्योंकि) बुद्धिमान गुरु के प्रिय पुत्र के समान प्रिय शिष्य (बुद्धपुत्र) को उसकी विनयशीलता के कारण कहीं से भी निकाला नहीं जाता। वह कहीं भी तिरस्कृत नहीं होता ॥७॥
Hence for acquiring good-conduct one should be modest; because like the beloved son of wise preceptor-wise pupil is never turned out from any where due to his modest behaviour. (7)
निसन्ते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अन्तिए सया ।
अट्ठजुत्ताणि सिक्खेज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए ॥८॥ शिष्य गुरु-चरणों में सदा शांत भाव से रहे, अल्पभाषी बने, अर्थयुक्त (मोक्ष के उपाय रूप) वचनों को सीखे और निरर्थक वचनों (लोकोत्तर अर्थरहित)-पदों को छोड़ दे ॥८॥
Disciple should remain calm near the preceptor, he should talk less, he should learn the dogmas pertaining to avail salvation and leave other non-useful words. (8)
अणुसासिओ न कुप्पेज्जा, खंति सेवेज्ज पण्डिए ।
खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हास कीडं च वज्जए ॥९॥ (विवेकवान) शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन (शिक्षा, ताड़न-तर्जन) से कुपित न हो, हृदय में क्षमा (क्षांति) धारण करे तथा क्षुद्र व्यक्तियों से सम्पर्क न रखे, उनके साथ हँसी, मजाक तथा किसी प्रकार की क्रीड़ा न करे ॥९॥
Discriminate disciple should not be angry by strict discipline of preceptor, he should have forbearing attitude. He should discard the company of mean persons, neither he should laugh nor play with them. (9)
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