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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकोनत्रिंश अध्ययन [३८४
नाणावरणिज्जं, नवविहं दंसणावरणिज्जं, पंचविहं अन्तरायं-एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ । तओ पच्छा अणुत्तरं, अणंतं, कसिणं, पडिपुण्णं, निरावरणं, वितिमिरं, विसुद्ध, लोगालोगप्पभावगं, केवल-वरनाणदंसणं समुप्पाडेइ । __ जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बन्धइ सुहफरिसं, दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्धं, बिइयसमए वेइयं, तइयसमए निज्जिणं ।
तं बद्धं, पुट्ठ, उदीरियं, वेइयं, निजिणं सेयाले य अकम्मं चावि भवइ ॥
सूत्र ७२-(प्रश्न) भगवन् ! प्रेय (राग), द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय पाने से जीव को क्या प्राप्त होता है?
(उत्तर) प्रेय, द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त करने से जीव ज्ञान-दर्शन और चारित्र.की आराधना के लिए उद्यत होता है। आठ प्रकार के कर्मों की कर्मग्रन्थी को खोलने (विमोचन करने) के लिए उनमें से सर्वप्रथम अनुक्रम से अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म का घात (क्षय) करता है एवं पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म का, पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म का-इन तीनों कर्मों के अंश (कर्माशों) का एक साथ (युगपत्) क्षय कर देता है। तदनन्तर अनुत्तर (प्रधान-सर्वश्रेष्ठ), अनन्त, सर्ववस्तु को विषय करने वाला संपूर्ण (कसिणं), प्रतिपूर्ण, निरावरण (आवरण रहित), अन्धकार (अज्ञाम अन्धकार) से रहित (वितिमिरं) विशुद्ध, लोकालोक प्रकाशक केवल (सहायरहित) एवं श्रेष्ठ (वर) ज्ञानदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
जब तक वह सयोगी (मन-वचन-काय योग सहित) रहता है तब तक ईर्यापथिक कर्म-क्रिया का बन्ध करता है (परन्तु उस कर्मबन्ध का) स्पर्श सुख (सातावेदनीय रूप शुभ कम) रूप होता है, उसकी स्थिति दो समय की होती है। वह प्रथम समय में बैंधता है, द्वितीय समय में वेदन किया जाता है-उसका उदय होता है
और तृतीय समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। ___ वह कर्म (क्रमशः) बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, वेदन किया (भोगा) जाता है और निर्जरित हो जाता है फिर आगामी काल में (अन्त में) अकर्म हो जाता है।
Maxim 72. (Q). Bhagawan! What does the soul attain by conquering affection, aversion and wrong belief ?
(A). By conquering affection, aversion and wrong belief, the soul exerts for propiliating right knowledge-faith-conduct. To untie the knot of eight types of karmas, first of all he destroys twenty eight divisions of infatuation karma; and then five types of knowledgeobstructing karma, nine types of perception obstructing karma, five types of energyobstructing karma-the remnants of these three karmas destroys altogether in one and the same moment. After that he attains the supreme knowledge and perception which is infinite, knower of all substances and modifications, complete, exhaustive, without any covering, completely devoid of darkness, ultimately pure, revealing whole world and outer space, only-i.e., does not need any assistance. In one word he becomes omniscient.
Till he remains with the activities of mind, speech and body (sayogi) he binds the karmas by passion-free activities (iryāpathika kriyā) but the touch of that bound karma is happy and auspicious, with the duration of two moments (samaya-the indivisible shortest
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