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३४१] सप्तविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
Some one is averse to seeking alms, the other fears the insult, the other is obstinate. If teacher disciplines them with causes and arguments then-(10)
सो वि अन्तरभासिल्लो, दोसमेव पकुव्वई ।
आयरियाणं तं वयणं, पडिकूलेइ अभिक्खणं ॥११॥ वह बीच में ही बोलने लगता है। गुरु (आचार्य) के वचनों में दोष निकालने लगता है। इतना ही नहीं, बार-बार आचार्य के वचन के प्रतिकूल आचरण करता है ॥११॥
Make objections and point out the fault of teacher. Not only this, they frequently act in opposition to the instructions of teacher. (11)
न सा ममं वियाणाइ, न वि सा मज्झ दाहिई ।
निग्गया होहिई मन्ने, साहू अन्नोऽत्थ वच्चउ ॥१२॥ भिक्षा लाने के समय कोई शिष्य गृहस्वामिनी के सम्बन्ध में कहता है-वह मुझे नहीं जानती है, वह मुझे कुछ नहीं देगी। मैं समझता हूँ, वह घर से बाहर निकल गई होगी। अतः इसके लिए अच्छा होगा कि कोई दूसरा साधु चला जाये ॥१२॥
In reference to begging, he makes lame and imaginary pretensions-she does not know ine, she will give me nothing, I suppose she will be gone out of her home. So it is better that any other ascetic go for begging. (12)
पेसिया पलिउंचन्ति, ते परियन्ति समन्तओ ।
रायवेटिंट्ठ व मन्नन्ता, करेन्ति भिउडिं मुहे ॥१३॥ किसी कार्य से भेजने पर बिना कार्य किये लौट आते हैं और अपलाप करते हैं। इधर-उधर घूमते हैं। गुरु की आज्ञा को राजा द्वारा ली जाने वाली बेगार (वेट्ठि-वेष्टि) मान कर मुँह पर भृकुटि चढ़ा लेते हैं ॥१३॥
If sent for any work, return without doing that, stroll about according to their wish and deport themselves. They treat the order cf teacher like the forced task of a ruler and knit their brows. (13)
वाइया संगहिया चेव, भत्तपाणे य पोसिया ।
जायपक्खा जहा हंसा, पक्कमन्ति दिसोदिसिं ॥१४॥ जैसे पंख आने पर हंस दशों दिशाओं-विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं उसी प्रकार शिक्षित-दीक्षित एवं भक्त-पान से पोषित किये गये कुशिष्य भी स्वेच्छाचारी बनकर इधर-उधर घूमते हैं ॥१४॥
As the geese, when their wings grown up, flew up in various directions, so the bad disciples, being instructed, took to order (consecrated), nourished with food and drink, they inove hither and thither according to their own will. (14)
अह सारही विचिन्तेइ, खलुंकेहिं समागओ । किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं, अप्पा मे अवसीयई ॥१५॥
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