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२७५] द्वाविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
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देव-मणुस्सपरिवुडो, सीयारयणं तओ समारूढो ।
निक्खमिय बारगाओ, रेवययंमि ट्ठिओ भगवं ॥२२॥ देवताओं और मनुष्यों से परिवृत भगवान अरिष्टनेमि अत्यन्त श्रेष्ठ शिविका रत्न पर आरूढ़ हुए तथा द्वारका से चलकर रैवतक गिरि (गिरनार पर्वत) पर अवस्थित हुए ॥२२॥
Surrounded by gods and men and sitting on an excellent palanquin, starting from Dvāraká city he assembled on the mountain Raivataka (Giranāra). (22)
उज्जाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तिमाओ सीयाओ ।
साहस्सीए परिवुडो, अह निक्खमई उ चित्ताहिं ॥२३॥ उद्यान में पहुँचे, शिविका से उतरे और एक हजार व्यक्तियों के साथ चित्रा नक्षत्र में भगवान ने निष्क्रमण किया ॥२३॥
Arrived at a garden, descended from his palanquin, and with one thousand other persons accepted consecration, while the moon was in conjunction of Citrā-star (23)
अह से सुगन्धगन्धिए, तुरियं मउयकुंचिए ।
सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिओ ॥२४॥ तव समाहित अरिष्टनेमि ने अपने सुगन्धित, घुघराले और कोमल सिर के केशों का स्वयं अपने हाथ से पंचमुष्टि लोंच किया ॥२४॥ ___Consecrated Aristanemi, tonsured his curly, perfumed and soft hairs, by his own five handfuls. (24)
वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइन्दियं ।
इच्छियमणोरहे तुरियं, पावेसु तं दमीसरा ॥२५॥ वासुदेव कृष्ण ने केशविहीन और जितेन्द्रिय भगवान अरिष्टनेमि से कहा-हे दमीश्वर ! तुम अपने इच्छित मनोरथ को शीघ्र ही प्राप्त करो ॥२५॥
Vasudeva said to reverend Aristanemi, who has plucked his hairs and was subduer of his senses, that- lord of saints ! you may obtain your aim sooner. (25)
नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेण तहेव य ।
खन्तीए मुत्तीए, वड्ढमाणो भवाहि य ॥२६॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षमा और निर्लोभता के साथ बढ़ते रहो ॥२६॥ Go ahead with right knowledge-faith-conduct, forgiveness and devoid of greed. (26)
एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहू जणा ।
अरिट्ठणेमिं वन्दित्ता, अइगया बारगापुरि ॥२७॥ ___ इस तरह वलराम, कृष्ण, दशार्ह तथा अन्य बहुत से व्यक्ति भगवान अरिष्टनेमि को वन्दन करके द्वारकापुरी को वापस लौट गये ॥२७॥
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