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उत्तराध्ययन सूत्र के चित्रों का विवरण युक्त परिचय
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चित्र-परिचय (१) अन्तिम उपदेश : पावापुरी के समवसरण में भगवान महावीर की अन्तिम देशनाः उत्तराध्ययन सूत्र का प्रवचन दृश्य। (२) संयोग त्यागी अणगार : घर, परिवार, धन आदि बाह्य संयोगों एवं कषाय, ममता आदि अन्तरंग संयोगों की बेड़ियाँ तोड़कर अणगार वृत्ति धारण करके वीतराग-मार्ग पर बढ़ने वाला भिक्षु। विनय का स्वरूप : (१) विनीत शिष्य गुरु के संकेत एवं मनोभावों पर लक्ष्य रखता है। नम्रता पूर्वक बैठता है, और गुरु के समीप शास्त्र आदि का ज्ञान प्राप्त करता है। (गाथा ३-२३) (२) विनीत शिष्य गुरु को आगम स्वाध्याय सुनाकर, शारीरिक परिचर्या करके, रुग्ण होने पर यथा समय पथ्य, औषधि आदि देकर उनकी सेवा करता है। (१) जिस प्रकार सड़े कानों वाली कुतिया सभी स्थानों से निकाल दी जाती हैं, उसी प्रकार अविनीत को सर्वत्र तिरस्कार मिलता है। (२) सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा आदि खाता है उसी प्रकार अज्ञानी सदाचार छोड़कर दुराचार की ओर जाता है। अडियल घोड़े की भाँति अविनीत शिष्य को बार-बार गुरुवचन रूप चाबुक की जरूरत होती है, जबकि सुविनीत शिष्य सुशिक्षित अश्व की भाँति संकेत मात्र से सीधे रास्ते चलता रहता है। (गाथा १२) क्षुधा आदि परीषह उत्पन्न होने पर मुनि समभाव पूर्वक उन्हें सहन करें। (गाथा २ से १३ तक) स्त्री परीषह आदि के समय मुनि आत्म-स्वरूप में लीन रहता हुआ उन्हें समता पूर्वक सहन करें। (गाथा १६ से २८) (चार दुर्लभ अंग) (१) दुर्लभ मानव जन्म : अनेकानेक जीव योनियों में परिभ्रमण करने के पश्चात् मानव जन्म प्राप्त होता है। (२) गुरु मुख से सद्धर्म का सुनना (श्रुति) दुर्लभ है। (३) देव, गुरु व धर्म (शास्त्र) के प्रति श्रद्धा बहुत दुर्लभ है। (४) संयम, ध्यान, स्वाध्याय आदि संयम में पुरुषार्थ दुर्लभ है। (१) जहाँ चार काम स्कन्ध-क्षेत्र-हरे, भरे खेत, वास्तु-भवन, हिरण्य-स्वर्ण, पशु, दास, सेवक आदि होते हैं, वहाँ पुण्यशाली जीव जन्म लेते हैं। (गाथा १७) कृत-कर्म फल : (१) घर में सैंध लगाता हुआ चोर पकड़ा जाने पर इस लोक में अपने अपराध के लिये राजा आदि से दण्ड पाता है और परलोक (नरक) में दुष्कर्मों का कटु-फल भोगता है। (गाथा ३) (२) प्रज्ञाशील ज्ञानी साधक सोये (प्रमादी) लोगों में जागता (अप्रमत्त) रहता है। दो मुख एवं एक उदरवाले भारण्ड पक्षी की भाँति वह प्रतिक्षण सजग (चोकन्ना) और अप्रमादी होकर विचरता है। (गाथा ६) (१) दुस्तर संसार सागर को पारकर तट पर पहुँचे हुए संसार सागर पारगामी भगवान महावीर ने यह उपदेश दिया है। (गाथा १) (२) जो मद्य-मांस आदि का सेवन करने में गृद्ध है; धन एवं स्त्रियों में आसक्त हैं; ऐसे अज्ञानी जीव अकाम-मरण प्राप्त करते हैं। (३) ध्यानी, स्वाध्यायी संयमी और जितेन्द्रिय, पुण्यात्माओं का सकाम-मरण (मरण-उत्सवमय) होता है।
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