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२४१] एकोनविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
विशेष स्पष्टीकरण
गाथा ३ - त्रयस्त्रिंश जाति के देवों को "दोगुन्दग देव" कहते हैं। ये जैन और बौद्ध परम्परा में बड़े ही महत्व के देव माने गये हैं। उन्हें सदा भोगपरायण कहा है।
गाथा ४- चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणि कहलाते हैं, और शेष गोमेदक आदि रत्न ।
गाथा १७ किम्पाक" एक वित्र वृक्ष होता है। उसके फल खाने में सुस्वादु होते हैं, किन्तु परिपाक में भयंकर कटु अर्थात् प्राणघातक । किंपाक का शब्दार्थ ही है - "किम्" अर्थात् कुत्सित- बुरा "पाक" अर्थात् विपाक-परिणाम है जिसका ।
गाथा ३६- सामान्यतया जैन श्रमणों की भिक्षा के लिये गोचर (गोचरी) एवं मधुकरी शब्द का प्रयोग होता है। यहाँ कापोती वृत्ति का उल्लेख है। कबूतर सशंक भाव से बड़ी सतर्कता के साथ एक-एक दाना चुगता है, इसी प्रकार एषणा के दोषों की शंका को ध्यान में रखते हुए भिक्षु भी थोड़ा से थोड़ा आहार अनेक घरों से ग्रहण करता है।
गाथा ४६ - संसार रूपी अटवी के नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चार अन्त होते हैं, अतः आगमों में संसार को
"चाउरंत" कहा गया है।
Salient Elucidations
Gatha 3-The gods of Trayastrimia class are said as Dogundaga gods. In Jain and Bauddha traditions these are supposed to be of great importance. These gods are fond of luxuries and comforts, pleasures and rejoicings.
Gatha 4-Candrakanta and Suryakanta etc., are called as gems and the remaining Gomedaka etc., as jewels.
Gatha 17 Kimpaka is a poisonous tree. Its fruits are very tasteful while eating. But the consequence is very punget-martial destruction of vital energies, death.
Gatha 36-Generally for alms taking or begging of Jain mendicants the words are used as Gocari and Madhukari. But here the word Kapotivrtti (tendency of a pigeon) is mentioned. Pigeon takes grain one by one by his beak with suspicion and alertness. In the same way keeping the faults of Bana (seeking circumspection) in mind mendicant also takes a little food from many houses.
Gatha 46 There are four ends of worldly wood-hell, beasts (crooked motion beings), human and god. Hence in sacred scriptures the universe is called as Cãuranta (having for ends or existences).
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