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In सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकोनविंश अध्ययन [२३२
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कील (समिला) युक्त जुए वाले, जलते हुए लोहे के रथ में जबरदस्ती जोता गया हूँ, चाबुक और रस्सियों से हांका गया हूँ तथा रोझ के समान पीट-पीटकर जमीन-भूमि पर गिराया गया हूँ ॥५७॥
I was forcibly yoked to a chariot, of burning iron and fixed nail (ATHATT) or gue and then I was driven by whips and ropes and by beating I was fallen down like an antelope (रोझ). (57)
हुयासणे जलन्तम्मि, चियासु महिसो विव ।
दड्ढो पक्को य अवसो, पावकम्मेहि पाविओ ॥५८॥ अपने ही पापों के कारण मैं जलती हुई चिताओं की अग्नि में भैंसे की तरह जलाया और पकाया गया हूँ ॥५॥
Due to my own sins, I have forcibly been burnt and roasted like a he-buffalo on piles and in ablazing fire. (58)
बला संडासतुण्डेहिं, लोहतुण्डेहि पक्खिहिं ।
विलुत्तो विलवन्तोऽहं, ढंक-गिद्धेहिऽणन्तसो ॥५९॥ लोहे जैसे कठोर और मजबूत मुख तथा संडासी जैसी नुकीली चोंच वाले गीध और ढंक पक्षियों द्वारा रोता-बिलखता हुआ मैं अनंत बार नोंचा गया हूँ ॥५९।।
I have been violently lacerated by birds (devilish vultures in the guise of birds) with iron bills and shaped like tongs, screaming and wailing, infinite times. (59)
तण्हाकिलन्तो धावन्तो, पत्तो वेयरणिं नदिं ।
जलं पाहिं त्ति चिन्तन्तो, खुरधाराहिं विवाइओ ॥६०॥ मैं प्यास से व्याकुल होकर, दौड़ता हुआ वैतरणी नदी के पास पहुँचा। जल पीने की सोच ही रहा था कि छुरे की धार जैसी तीक्ष्ण धारा ने मुझे चीर दिया ॥६०॥
Suffering from agony of thirst, I ran to hellish river Vaitarani. I was thinking to drink water, but the sharp current of river cleaved me. (60)
उण्हाभितत्तो संपत्तो, असिपत्तं महावणं ।
असिपत्तेहिं पडन्तेहिं, छिनपुव्वो अणेगसो ॥६१॥ गर्मी से संतप्त होकर छाया के लिए मैं असिपत्र महावन में पहुंचा। लेकिन वृक्षों से गिरते हुए छुरे की धार के समान तीक्ष्ण पत्तों ने मुझे चीर दिया ॥६१॥
Distressed by extreme heat I approached the Asipatra Mahāvana. But the leaves dropping down from which were as sharp as daggers, those leaves cleaved me. (61)
मुग्गरेहिं मुसंढीहिं, सूलेहिं मुसलेहि य ।
गयासं भग्गगत्तेहिं, पत्तं दुक्खं अणन्तसो ॥६२॥ सभी ओर से निराश हुए मुझे मुद्गरों, मुसुण्डियों, शूलों और मूसलों से चूर-चूर कर दिया गया। ऐसा भयंकर दुःख-कष्ट मैंने अनन्त बार भोगा है ॥६२॥
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